Thursday, December 24, 2009

रास्ट्र वादिता और प्रगति

हाजिर हूँ रास्ट्र वाद पर अपना चिंतन लेकर


जब कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओ में परिवर्तन होता है ,--उनकी गति और अविरल प्रवाह में परिवर्तन होता है ,, तब नयी व्यवस्थाये जन्मती है और धीरे धीरे पुरानी व्यवस्थाये विलुप्त होने लगती है--- ,व्यवस्थाओ के इस परिवर्तन का समाज और रास्ट्र पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है , यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकता है ----, यदि प्रभाव सकारात्मक है तो थोड़ी हील हुज्जत के बाद ये व्यवस्था समाज द्वारा स्वीक्रत हो जाती है,---- और पुरानी व्यवस्था की जगह ले लेती है , परन्तु यदि यही प्रभाव नकारात्मक होता है,, तो इसके खिलाफ रास्ट्र वाद की दुहाई देता हुआ एक प्रबुद्ध वर्ग खड़ा हो जाता है ,,और व्यवस्था परिवर्तन का विरोध करता है ,, आम जन उस समय कर्तव्य विमूढ़ होता है ,,वह ना तो नयी व्यवस्था को पूर्णता अस्वीकार करता है--- और न ही स्वीकार ही , प्रबुद्ध वर्ग द्वारा असंगत व्यवस्था परिवर्तन के विरोध को और अल्प प्रबुद्ध वर्ग(यहाँ प्रबुद्ध वर्ग और अल्प प्रबुद्ध वर्ग के मेरे मानक के अनुसार चिंतन शील समाज का वह वर्ग जो प्रगति का तो विरोधी नहीं है- परन्तु किसी भी व्यवस्था परिवर्तन को पूर्ण चिंतन और मनन के साथ ही स्वीकार करता है तथा भविष्य की पीढियों पर उस व्यवस्था परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा इसके प्रति जाग्रत होकर ही व्यवस्था परिवर्तन को स्वीक्रति देता है -प्रबुद्ध वर्ग में आता है --समाज का वह वर्ग जो समाज और रास्ट्र के हितो के प्रति तो चिंतित होता है ,,परन्तु उसका यह चिंतन सामायिक और वर्तमान परस्थितियों को लेकर ही होता है समाज और रास्ट्र पर व्यवस्था परिवर्तन के द्वारा पड़ने वाले दीर्घ गामी प्रभाव को लेकर ये वर्ग मौन होता है अल्प प्रबुद्ध वर्ग में आता है ) द्वारा व्यवस्था परिवर्तन के समर्थन को आंख बंद कर के ही देखता है ,--- यदि पुरानी व्यवस्था असंगत और शोषक है तो यह वर्ग उसके शोषण को तो महसूश करता है और उसके परिवर्तन की उत्कंठा भी रखता है परन्तु यह बिना चिंगारी का ईधन है ,जो आग को जलाए तो रख सकता है परन्तु जिसमे आग उत्पन करने की क्षमता नहीं है यही वो वर्ग है जो दोनों वर्गों ( प्रबुद्ध और अल्प प्रबुद्द वर्ग ) द्वारा आसानी से अपने साथ जोड़ा जा सकता है ,,, इस वर्ग द्वारा राष्ट्रीयता रास्ट्र वाद और रास्ट्र भक्ति की कोई स्वनिर्धारित व्याख्या नहीं होती . यह विभिन्न वर्गों द्वारा निर्धारित रास्ट्र वाद की व्याख्याओ के अनुसार अपने आप को रास्ट्रवादी सिद्ध करने का प्रयाश करता रहता है,,, अब यहाँ जो मुख्य बात पर दिखती है वह यह है की समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रास्ट्र वाद के स्पस्ट और तर्क पूर्ण अर्थ से ही अनभिग्य है तिस पर विभिन्न राजनैतिक और सामाजिकदलों ने
अपने फायदे के हिसाब से रास्ट्र वाद की मनगढंत व्यखाये करके कोढ़ में खाज का काम किया है ,, जिससे बहुत बड़ा और दीर्घ गामी नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ा ,और आम जन की रूचि अस्मिता और आत्म गौरव से जुड़े इन शब्दों से हट गयी ,, इन शब्दों को इतना गूढ़ कर दिया गया की ये शब्द भारी साहित्य की तरह नीरश और भारी लगने लगे जिनका प्रयोग लिखने पढने और बोलने तक ही रह गया और आम जन का जुड़ाव इन शव्दों से ख़त्म होने लगा ,, जब की सीधे शव्दों में देखा जाए तो अपनी अस्मिता और पहिचान को बचाए रखने के लिए नकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन का विरोध ही प्रखर रास्ट्र वाद है ,,और यही सच्ची रास्ट्र भक्ति है . क्यों की रास्ट्र वादिता है तो रास्ट्र है और रास्ट्र है तो राष्ट्रीयता और यही रास्ट्रीयता हमारी पहिचान है ,, तो इन अर्थो में रास्ट्र वाद कोई गूढ़ विषय न होकर वयक्तिक विषय है जो सीधे सीधे व्यक्ति विशेष से जुड़ा है,, रास्ट्र वाद की व्याख्या में दो सबसे महत्पूर्ण अवयव है रास्ट्र और जन ,, रास्ट्र संस्क्रति , अध्यात्म ,धर्म दर्शन तथा भूखंड का वह भाग है जिसमे जन निवास करते है ,,, जन किसी भी रास्ट्र में रहने वाले मनुष्यों का वह समूह जो उस रास्ट्र की सांस्क्रतिक ,अध्यात्मिक, धार्मिक और इतिहासिक पहिचान की ऱक्षI करते हुए और उससे गौरव प्राप्त करते हुए निरंतर उस रास्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए प्रयाश रत रहता है जन कहलाता है ,, यहाँ ये ध्यान देने योग्य बात है की किसी भी रास्ट्र की भौगोलिक सीमाए परिवर्तनीय हो सकती है परन्तु किसी रास्ट्र का आस्तित्व तभी तक है जब तक उसकी सांस्क्रतिक और अध्यात्मिक पहिचान जिन्दा है जिसके ख़त्म होते ही रास्ट्र विलुप्त हो जाता है , और वह केवल भूखंड का एक टुकड़ा मात्र रह जाता है . यही सांस्क्रतिक धार्मिक और अध्यात्मिक पहिचान जन में राष्ट्रीयता का बोध कराती है, परन्तु एक जो चीज सबसे महत्व पूर्ण है वह ये है की रास्ट्र और जन एक दुसरे के पूरक तो है, परन्तु रास्ट्र सर्वोच्च है , जन के पतन से रास्ट्र का शनै शनै पतन तो होता है परन्तु रास्ट्र के पतन से जन का सर्व विनाश हो जाता है , अतः रास्ट्र की सर्वोच्चता और अस्तित्व को बनाये रखना प्रत्येक जन का कर्तव्य है क्यों की रास्ट्र है तो जन , रास्ट्र प्रेम की यही भावना रास्ट्र वाद है जिसमे व्यक्तिगत हितो को तिरोहित करके संघ समाज समूह के विस्तर्त वर्ग में अपना हित देखा जाता है,,यही त्याग की भावना रास्ट्रवादी होने का गौरव प्रदान करती है ,, अगर इसे सीधे शब्दों में देखे तो अपनी पुरातन उर्ध गामी व्यवस्था संस्क्रति और गौरव को बचाए रख कर प्रगति के मार्ग पर बढ़ना ही सच्चा रास्ट्र वाद है-- , यही राष्ट्रीयता की भी सच्ची पहिचान है ,,जो आज कल विभिन्न राजनैतिक दलों संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद की व्याख्या से सर्वथा अलग है , अगर हम विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद का विश्लेषण करे तो तो हम यही पाते है की उनके द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद अधूरा रास्ट्र वाद है, और वे पूर्ण रास्ट्र वादिता का समर्थन नहीं करते ,,क्यों की कोई भी वाद एक के द्वारा स्वीकार्य तथा दूसरे के द्वारा अस्वीकार्य और दूसरे के द्वारा स्वीकार्य और पहले के द्वारा अस्वीकार्य हो कर प्रखर रास्ट्र वाद की व्याख्या नहीं कर सकता ,,,,,,
इसे हम धर्म से भी नहीं जोड़ सकते ,क्यूँ की हम किसी विशेष धर्म को रास्ट्र वादी और दूसरे को रास्ट्र विरोधी तब तक नहीं मान सकते जब तक उस धर्म के मानने वाले रास्ट्र वाद की परिक्षI में पास या फेल नहीं होते , अब हम फिर उसी विषय पर आ जाते है की आखिर रास्ट्र वाद है क्या ?क्या किसी एक वर्ग विशेष द्वारा प्रतिपादित मानको को पूरा करना रास्ट्र वाद है या फिर दूसरे वर्ग द्वारा निर्धारित मानको को पूरा करना सच्चा रास्ट्र वाद है ,,,इसे हम आधुनिक परिपेक्ष में सबसे विवादस्पद विषय वन्दे मातरम को ले कर देख सकते है , एक वर्ग विशेष इसके गायन को प्रखर रास्ट्र वाद और इसके विरोध को रास्ट्र द्रोह मानता है , वही दूसरा वर्ग इसके गायन की बाध्यता को धार्मिक स्वतन्त्रता का हननमानता है,, अब इन दोनों में किसे रास्ट्र वादी कहा जाए और किसे नहीं ,,यहअपर मै अपने विचार स्पस्ट करना चाहूँगा " की किसी व्यक्ति के अन्दर रास्ट्र वाद को डर ,भय ,प्रलोभन और बाध्यता के द्वारा नहीं पैदा किया जा सकता है , यह वो भावना है जो व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर आत्म गौरव और सामाजिक त्याग से शुरू होती है ,,जो केवल और केवल जाग्रति के द्वारा ही संभव है , मै नहीं मानता की जो वन्देमातरम नहीं गाते वो रास्ट्र वादी नहीं और न मै ये मानता हूँ की जो वन्देमातरम गाते है वो प्रखर रास्ट्र वादी है ,,रास्ट्र वाद एक भावनात्मक जुड़ाव है जो संस्क्रति के प्रति महसूस होने वाले गौरव के रक्षIर्थ स्वत उत्पन्न होता है ,,ये बाध्यता नहीं है परन्तु आस्तित्व का संघर्ष है ,,अतः रास्ट्र वादिता के विराट स्वरूप को किसी गीत संगीत या दलगत राजनीति के मानको में ढालना उचित नहीं है ,,,रास्ट्र वाद आस्तित्व की पहिचान है ,,,जो जाति समाज वर्ग, धर्म और संघ से ऊपर उठी हुई त्याग की एक भावना है जो पूर्णता पुष्ट होने पर बलिदान में परिवर्तित हो जाती है ,,रास्ट्र वाद की उस श्रेष्ठता में पहुचने पर व्यक्तिगत आबश्यकताये व्यक्तिगत पहिचान , और व्यक्ति विषेयक सारे नियम रास्ट्र के हित में तिरोहित हो जाते है यही प्रखर रास्ट्र वाद की अति है ,, जो धर्म जाति और वर्ग संघर्ष से ऊपर है ,,रास्ट्र वादिता में जो एक चीज मुख्य रूप से दिखाई देती है वो हैआत्म त्याग की निस्वार्थ भावना ,, क्यूँ की इसके न रहते हुए रास्ट्र वाद की बात नहीं की जा सकती ,, जहा रास्ट्र जन के सम्मान पहिचान और गौरव के लिए उत्तरदायी होता है,, और जहाँ जन रास्ट्र के इतिहास प्रगति और उत्थान से गौरव पाते है,,वही रास्ट्र की सांस्क्रतिक विरासत को बनाये रखना और रास्ट्र को निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ाये रखना प्रत्येक जन का परम कर्तव्य होता है ,,,,,
इसे हम इस प्रकार समझ सकते है ,,की जन का एक वर्ग जहा रास्ट्र के लिए प्रगति और उत्थान कर उसके गौरव को निरंतर चर्मौत्कर्ष पर ले जाता है ,,वही दूसरा वर्ग रास्ट्र की संस्क्रति विरासत और इतिहास को सभाल कर आने वाले पीढ़ी को गौरवान्वित करने की व्यवस्था करता है,,और आने बाली पीढ़ी अपने गौरवान्वित इतिहास सेआत्म संबल प्राप्त कर के रास्ट्र के उत्थान में नित नए आयाम स्थापित करती है ,,,अतः रास्ट्र वादिता उत्थान की सीढ़ी है ,,,और चर्मोत्कर्स पर पहुचने का तरीका है

बिना रास्ट्र के जन अस्तित्व हीन है अतः आस्तिव को बचाए रख ने के लिए रास्ट्र वादिता नितांत आवश्यक है ,,,परन्तु रास्ट्र वादिता प्रलोभन नहीं है वह स्वीक्रति है, निर्भरता नहीं है उन्नति है ,,,, और प्रखर रास्ट्र वादिता से नित नयी उन्नति की जा सकती है और उन्नति के लिए नए आयाम स्थापित किये जा सकते है ,,,अतः रास्ट्र वादिता और प्रगति की प्रचलित वो धारणा की रास्ट्र वादिता में संस्क्रति और इतिहास के संरक्षण के कारण रास्ट्र वादिता प्रगति के मार्ग में बाधक है और प्रगति से रास्ट्र वादिता खो जाती है,,नितांत भ्रामक है,,,अतः रास्ट्र वादिताऔर प्रगति दोनों एक दूसरे के पूरक है ,,,प्रगति के नए आयामों के संयोजन के बिना तथा पुराने गौरव को बचाए बिना रास्ट्र को बचाना मुश्किल है ,,,अतः प्रखर रास्ट्र वादिता के लिए प्रगति वादिता आवश्यक है ,,परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा की प्रगति वादिता के मानक रास्ट्र के गौरव मय इतिहास और संस्क्रति को ध्यान में रख कर ही तय करने होगे वही सच्ची रास्ट्र भक्ति होगी और वही सच्ची रास्ट्र वादिता होगी अंत में दो शब्दों के साथ मै अपनी लेखनी को विराम देता हूँ ,,,
"जिस व्यक्ति के अन्दर अपनी संस्क्रति सभ्यता और इतिहास को सजोने की क्षमताऔर प्रगति के नित नए आयाम स्थापित करने की तत्परता नहीं है वो न तो रास्ट्र वादी है और न ही प्रगति वादी है वो निरे पशु के सिवा कुछ भी नहीं है " ,

Friday, October 9, 2009

नारी उत्थान का नंगा सच



नारी
उत्थान और समाज में उनकी स्थितिक बराबरी का मै पछ धर हूँ पर परम्पराओं व्यवस्थाओं के अवमूल्यन और उन्मूलन की शर्त पर नहीं ,,, आज समाज में स्त्रियों की दशा सोचनीय है ,(यहाँ पर मै वैश्विक समाज की बात कर रहा हूँ ) उनका शोषण होता है शत प्रतिशत सही है ,, उनकी क्षमता, योग्यता , और कार्यशीलता का मूल्यांकन पक्षपात पूर्ण है,,,,लेकिन इसके लिए दोषी कौन है ये विचारणीय प्रश्न है,,, सम्पूर्ण पुरुष समाज की सहभागिता और पुरातन परम्पराओं , व्यवस्थाओं को अगर एक तरफ धकेल भी दिया जाए (जैसे की पश्चिमी समाज में काफी हद तक है ) फिर भी स्त्रियों उनकी दशा में प्रतिशत का सुधार होने बाला नही ,, समाज को बाँट कर और एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगा कर किसी भी समस्या के हल पर नहीं पंहुचा जा सकता,,, पश्चिमी समाज में जहा स्त्री स्वंतत्र है, आत्म निर्भर है (यहाँ आत्म निर्भरता से मतलब सेक्सुअल आत्म निर्भरता से भी लिया जाए ) और पुरुषों से किसी मामले में कम तर नहीं है (जैसा की कथित स्त्रीवादी कहते है ) स्त्रियों की दशा क्या है मै दू लायनो में स्पस्ट करना चाहूंगा ,,,,
कुछ तथ्य देखिये

--हर में से एक अमेरिकन स्त्री अपनी जिन्दगी में बलात्कार की शिकार होती है,,,
--१७. मिलियन अमेरिकन औरते पूर्ण या आंशिक बलात्कार की शिकार है ,,,
-१५ % बलात्कार की शिकार १२ साल से कम उम्र की लड़किया है ,,,
--लगभग % अमेरिकन पुरुषों ने हर ३३ में ने अपनी जिन्दगी में कभी कभी पूर्ण या आंशिक बलात्कार किया है ...
एक चाइल्ड प्रोटेक्शन संस्था की १९९५ की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में १२६००० बच्चे बलात्कार के शिकार है जिनमे से 75 % लड़किया है और लगभग ३० % शिकार बच्चे से की उम्र के बीच के है
ये आकडे कम नहीं है अगर हम इन की अन्य विपत्तियों से तुलना करते है तो स्तिथि की भयानकता स्पस्ट हो जाती है ,,, ,,
जरा देखे
बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या डिप्रेशन के शिकार रोगियों से तिगुनी ,,शराब पीकर गाली देने वालो से १३ गुनी ,, नशीला पदार्थ ले कर गाली देने वालो से २६ गुनी और आत्म हत्या करने वालो से चौगुनी है ,,,
ये तो बहुत कम आकडे है ,,,,
अगर इसी प्रगति के लिए हमारे कथित प्रगति वादी (जिन्हें पश्चिमी की हवा लगी है ) हाय तोबा मचा रहे है तो येसी प्रगति को हम तो बर्दास्त नहीं कर सकते,,,,
अब बात शुरू करते है नारी शास्क्तिकरण और नारी उत्थान की (जिसकी हवा बाँध कर कुछ चंद प्रगतिवादी अपनी पद प्रतिस्ठा और अर्थ की रोटियां सेक रहे है और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को दिग्भर्मित किये है ),,,, आखिर नारी वादी आन्दोलन है क्या? मै तो आज तक नहीं समझ पाया .,,,, क्या नारी वादी आन्दोलन वास्तव में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए की जा रही कोई क्रान्ति है ?,, या फिर पश्चिम से लिया गया एक खोखला दर्शन ,, जिससे स्त्री उत्थान तो संभव नहीं हां अवनति के द्वार अवस्य खुलते है ,,, अगर पश्चिम के इस दर्शन से कुछ हो सकता तो पश्चिमी समाज में स्त्रियो की जो दशा आज है शायद वो नहीं होती ,,,,,
हत्या ----दिसम्बर २००५ की रिपोर्ट के आधार अनुसार अकेले अमेरिका में ११८१ एकल औरतो की हत्या हुई जिसका औसत लगभग तीन औरते प्रति दिन का पड़ता है यहाँ गौर करने वाली बात ये है की ये हत्याए पति या रिश्ते दार के द्बारा नहीं की गयी बल्कि ये हत्याए महिलाओं के अन्तरंग साथियो (भारतीय प्रगतिवादी महिलाओं के अनुसार अन्तरंग सम्बन्ध बनाना महिलायों की आत्म निर्भरता और स्स्वतंत्रता से जुड़ा सवाल है और इसके लिए उन्हें स्वेच्छा होनी चाहिए) के द्बारा की गयी ,,,,
अब अंत रंग साथियो ने येसा क्यूँ किया कारण आप सोचे ,,,,नहीं नहीं नहीं नंगा पन (कथित प्रगतिवाद ) इसके लिए जिम्मेदार नहीं है ,,,
घरेलू हिंसा-----National Center for Injury Prevention and Control, के अनुसार अमेरिका में . मिलियन औरते प्रति वर्ष घेरलू हिंसा और अनेच्छिक सम्भोग का शिकार होती है ,,, और इनमे से कम से कम २० % हो अस्पताल जाना पड़ता है ...
कारण ---- पुरुष विरोधी मानसिकता और पारिवारिक व्यवस्थाओं में अविस्वाश और निज का अहम् (जो की कथित प्रगतिवाद की श्रेणी में आता है ) तो कतई नहीं होना चाहिए ,,,
सम्भोगिक हिंसा -----National Crime Victimization Survey, के अनुसार 232,960 औरते अकेले अमेरिका में २००६ के अन्दर बलात्कार या सम्भोगिक हिसा का शिकार हुई , अगर दैनिक स्तर देखा जाए तो ६०० औरते प्रति दिन आता है,,,इसमें छेड़छाड़ और गाली देने जैसे कृत्य को सम्मिलित नहीं किया गया है ,,, वे आकडे इसमें सम्मिलित नहीं है जो प्रताडित औरतो की निजी सोच ( क्यूँ की कुछ औरते येसा सोचती है की मामला इतना गंभीर नहीं है या अपराधी का कुछ नहीं हो सकता)और पुलिस नकारापन और सबूतों अनुपलब्धता के के कारण दर्ज नहीं हो सके ,,,
कारण --- इन निकम्मे प्रगतिवादियों और नारी वादियों द्बारा खड़े किये गए पुरुष विरोधी बबंडर रूपी भूत की परिणिति से उत्पन्न स्त्री पुरुष बिरोध और वैमन्यस्यता ( स्त्रियों को पुरुषों के खिलाफ खूब भरा जाना और और पुरुषों का स्त्र्यो की सत्ता के प्रति एक भय का अनुभव )तो बिलकुल नहीं ये आकडे बहुत है मै कम दे रहा हूँ और उद्देश्य बस इतना ही है की पुरुष विरोध के कथित पूर्वाग्रह को छोडिये ( जिसे मै पश्चिम की दें मानता हूँ )
इसमें किसी तरह का कोई नारी विरोध नहीं है और ना ही मै ये चाह्ता हूँ की उनकी स्तिथि में सुधार ना हो ,, बल्कि मै तो आम उन स्त्रियों को समझाना चाहता हूँ (जो इन कथित प्रगतिवादी महिलाओं और पुरुषों के द्बारा उनके निजी लाभ के कारण उकसाई जा रही है) की इनके प्रगतिवाद में कोई दम नहीं अगर वास्तव में आप को समाज में अपनी स्तिथि को उच्चता पर स्थापित करना है तो आप को उस भारतीय परम्परा की ओर बापस आना होगा ( जो कहता है स्त्रिया पुरुषों से अधिक उच्च है ) है ,,,
अब कथित प्रगतिवादियों के लिए छोटा सन्देश आप को अपनी प्रस्थ भूमि पर फिर विचार करने की आवश्यकता है और देखना है की जिस प्रगतिवाद की दुहाई आप दे रही है और जिन्हें आप

ने
मानक के रूप में स्थापित कर रक्खा है ,, क्या प्रगति वाद से उनकी वास्तव में कोई भी प्रगति हुई इतने लम्बे चले पश्चमी प्रगतिवादी आन्दोलन से क्या हासिल हुआ केवल विच्च का नाम जिस पर पश्चिमी औरते गर्व करती है ,,
m tough, I’m ambitious, and I know exactly what I want. If that makes me a bitch, okay. - Madonna Ciccone

अब येसा नहीं है की मै सभी नारी उत्थान में लगी महिलाओं की बुराई कर रहा हूँ मै तो ये फटकार केवल उनही चंद महिलावादियो को लगा रहा हूँ जो महिलाओं को उनकी स्तिथि से दिग्भ्रमित कर रही है और निजी स्वार्थ बस पुरुष विरोधी मानसिकता का प्रसार और पश्चिमी नारीवादी दर्शन(जो की अब फ्लॉप हो गया है ) का प्रचार कर रही है ,,,
ये मेरा ही मानना नहीं है बल्कि सच्ची नारी वादी महिलाए( यहाँ पर मेरा सच्ची नारी वादी महिलाओं से मतलब उन प्रबुद्ध महिलाओं से है जो पश्चिमी ब्नारिवादी दर्शन को भारतीय महिलाओं के लिए अभिशाप मानती है और सतत भारतीय मानको के आधार पर नारी उठान में लगी हुई है )
भी यही सोचती है उनमे से कुछ का उदहारण मै यहाँ पर दूंगा ,,,

मीडिया से ताल्लुक रखने वाली संध्या जैन कहती हैआज जो कानून बन रहे हैं वो विदेशी कानूनों की अंधी नकल भर हैं। उनमें विवेक का नितांत अभाव है। उन्होंने कहा कि अगर हमारे बेटे-बेटियां लिव इन रिलेशनशिप के तहत रहेंगे तो क्या हम खुश रहेंगे। क्या उनके इस फैसले से हमारी आत्मा को दुख नहीं होगा। अगर दुख होगा तो हमें ऐसे कानून का विरोध करना चाहिए और नहीं तो फिर तो कोई बात ही नहीं।"

गांधी विद्या संस्थान की निदेशक कुसुमलता केडिया जी के अनुसार भारतीय स्त्री किसी ने बिगाड़ी तो वो थे दो तामसिक प्रवाह- इस्लाम और ईसाइयत का भारत में आगमन। केवल भारत में ही नहीं ये दोनों शक्तियां जहां भी गईं वहां की संस्कृति की इन्होंने जमकर तोड़-फोड़ की। ईसाई विचारधारा के अनुसार स्त्री ईंख के समान है जिसे चाहें तो चबाएं या रस निकाल उसे पीकर फेंक दें। दूसरी ओर इस्लाम स्त्री को पूर्णत ढंक देने की वकालत करता है लेकिन वह यह नहीं सोचता कि इससे स्त्री का सांस लेना दूभर जाएगा।

ईसाई धर्म ने स्त्रियों पर जमकर अत्याचार किया।

जो स्त्री अधिक बोलती थी उसे मर्द रस्सी में बांधकर नदी में बार-बार डूबोते थे। यही उसकी सजा थी। लेकिन हमारे देश में इन दोनों के आगमन से पूर्व स्त्रियों की हमेशा सम्मानजनक स्थिति रही। विघटन तो इनके संसर्ग से हुआ। भारत के संदर्भ में नारी मुक्ति यही है कि भारतीय स्त्री फिर उसी पुरातन स्त्री का स्मरण कर अपने उस रूप को प्राप्त करे। कि पश्चिम की स्त्रियों का नकल करे।

समाज सेविका निर्मला शर्मा के अनुसार " भारत के गांवों में रहने वाली स्त्री तो मुक्त होने की इच्छा व्यक्त नहीं करती। एक मजदूरन भी ऐसी सोच नहीं रखती। मुक्ति वो स्त्रियां चाहती हैं जो कम कपड़ों में टेलीविजन के विज्ञापनों में नजर आती हैं ताकि वो कपड़ों का बोझ और हल्का कर सकें। नारी मुक्ति के बारे में वो औरतें सोचती हैं जिनकी जुबान पर हमेशा रहता हैये दिल मांगे मोर


निष्कर्ष यही है की नारी उत्थान और बराबरी आबश्यक है पर उसके मानक भारतीय हो
तथ्य और आकडे साभार.....

-Bureau of Justice Statistics,

2Deptartment of Justice,

3Centers for Disease Control and Prevention (CDC),

4National Coalition Against Domestic Violence (NCADV),

5Bureau of Justice Statistics (table 2, page 15),

6US Census Bureau (page 12),


7National Institute of Justice (pages 6-7),


8Family Violence Prevention Fund,



9University of North Carolina,

10National Coalition of Anti-Violence Programs (NCAVP),

11http://www.bhartiyapaksha.com/?p=1634

Thursday, August 20, 2009

क्या आप ब्राह्मण है ? सोचिये |

कुछ ऐसी चीजे होती है जो मन को व्यथित करती है ...... एक त्रष्णा भी भरती है .... जिनके बारे में सोच कर मन आंदोलित भी हो जाता है ..... अब क्यूँ ही वो हमारी पुरातन मान्यताये हो ,विचार धाराए हो , या फिर परम्पराए हो ...... यहाँ पर मेरा मकसद किसी परंपरा विचारधारा या मान्यता को उठाना या गिराना नहीं है ..... बल्कि उसका संयम पूर्ण अध्यन करके उसके सही उद्देश्य और उपयोगता का पता लगाना है ------ कई परम्पराए आज जिस रूप में है और हमें लगता है की निर्मूल है------- इनका होना हमारे लिए ठीक नहीं है -------और ये अनावश्यक है ------परन्तु ये भी हो सकता है की ये परम्पराए -----जो हमें अब निर्मूल और बेतुकी लगती है ------हो सकता है अपने मूल रूप से अलग हो -----या जिस रूप में बनायी गयी हो हम उन्हें उस रूप में ले ही नहीं रहे हो------ तो किसी परंपरा या विचार धारा का खंडन करने से पहले -----या उनपर अपनी राय रखने से पहले हमें उनका पूर्ण अध्यन करना चाहिए -------, और ये अध्यन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की उत्कर्ष्टता और उसके स्वर्णिम इतिहास को ध्यान में रख कर करना चाहिए ------- ,, किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर नहीं --------,,,,,, क्यों की जो परम्पराए उस समय बनी और अगर वो अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है ---------, तो उनका विरोध करने से पहले हमें सौ बार सोचना चाहिए ------- गहन अध्यन करना चाहिए----- ,,,, क्यूँ की परम्पराए अगर अपने मूल रूप में है तो उनके गलत होने के चांस नगण्य है--- ये मेरा व्यक्तिक मत है -----,, परन्तु परम्पराओं में मिलाबट से भी इनकार नहीं किया जा सकता--- क्यूँ की हमारी संस्क्रती अनेक उथल पुथल से गुजरी है ----- और अनेक अन्य सभ्यताओं और संस्क्रतियो का मिश्रण भी इसमें हुआ है -----अतः जो परम्पराए आज प्रचलित है वे बिलकुल ठीक है --- और अपने मूल रूप में है ये बिलकुल सही ढंग से नहीं कहा जा सकता ------, परन्तु परम्पराओ को नाकारा भी नहीं जा सकता---- तो फिर क्या किया जाए ? ,----,, अब आबश्यकता है---- कि किसी भी परंपरा या विचार धारा के पीछे छुपे तथ्य और कारण की जान कारी ( जो बिना अध्यन के संभव नहीं है ) के बिना हमें उस परम्परा या विचार धरा का विरोध नहीं करना चाहिए------ अतः मै तो यही कहना चाहूँगा की किसी भी परंपरा को नकारने से पहले उसका गहन अध्यन आवश्यक है ------,, परन्तु आज कल के कथित प्रगति वादी और बुद्धिजीवी लोग (सभी नहीं ) या तो परम्पराओं को मानते ही नहीं है---- या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर उनका अध्यन करते है------ और उनमे अनेक कमियां निकाल कर उन्हें नकार देते है------ या फिर अपने फायदे के अनुसार उनकी अपने मन माफिक व्याख्या भी करते है----- ,, ऐसी अनेक परम्पराए जिनकी गलत ढंग से व्याख्या की गयी आज समाज के लिए सर दर्द बनी हुई है ------और कई लोगो की तो सत्ता ही इन परम्पराओ की गलत व्याख्या पर ही टिकी हुई है----- इन्ही में एक जाति व्यवस्था या वर्णाश्रम व्यवस्था भी है------ ,, जिसका विरोध करके या समर्थन कर कई राज नैतिक दल अपनी राज नैतिक रोटियां सेक रहे है----- और आम जन को गुमराह कर रहे है----- ,,,,,, अब कई सबाल स्वतः ही हमारे दिमाग में उठ खड़े होते है ------की जाति व्यवस्था में तो समाज को ऊपर और नीचे विभाजित किया जाता है------ ये तो मनुष्य और मनुष्य के बीच खाई खड़ी करती है ----- ,,, तो फिर क्या वर्णाश्रम व्यवस्था खराब है ?,,, क्या उसे नहीं होना चहिये ?ऐसे ना जाने कितने सबाल हमरे दिमाग में उफान मारने लगते हैं ----,,, अगर आप मुझे से सच पूछे की मेरी राय क्या है------ तो मै स्पस्ट कहूँ गा की वर्णाश्रम व्यस्था में कोई दोष नहीं है----- अगर आबश्यकता है तो उसकी पुनार्व्यखाया की---- और उसे समझने की ------,,, और मै तो यहाँ तक कहूँगा की वर्णाश्रम व्यस्था के बिना समाज सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता -----,, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था की बहुत जरुरत है----- ,,, यहाँ पर मै वर्णाश्रम व्यवस्था के मूल रूप और उसके स्थापना के कुछ तथ्य रखूँगा------|

सबसे पहले हम बात करते है ----वर्णाश्रम व्यवस्था की आवश्यकता की वर्णाश्रम व्यवस्था की आबश्यकता ही क्यूँ है? और अगर है तो इसका आरोही या अवरोही क्रम क्यूँ है,?, आखिर वर्णाश्रम व्यवस्था में सब को समानता क्यूँ नहीं ? कोई एक वर्ग उंचा और दूसरा वर्ग नीचा क्यूँ ?और किसी वर्ग के उच्च या निम्न होने के माप दंड क्या है ?,,,

शुरू करते है आबश्यकता से----- ,,, किसी भी रास्ट्र ,समाज या परिवार ,को सुचारू रूप से चलने के लिए कुछ नियम या व्यवस्थाये परिवार समाज या रास्ट्र के लोगो द्वारा निर्धारित की जाती है------ जो लचीली और लोचबान होती है----- जो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है----- इनका मकसद केवल व्यवस्था कायम करना होता है बंधन बनाना नहीं------ ठीक उसी तरह की व्यवस्था जाति व्यवस्था भी है-----,,, इसे एक परिवार से शुरू करते है----- हम सभी जानते है कि भारतीय परिवार व्यवस्था विश्व की शीर्ष परिवार व्यवस्था है ------अब एक परिवार को ठीक और सुचारू रूप से चलाने के लिए परिवार के प्रतेक सदस्य का कार्य निर्धारित होता है------ जो परिवार के मुखिया के द्वारा उसकी योग्यता के हिसाब से उसे दिया जाता है -----,, जैसे प्रत्येक घर में कोई बुजुर्ग व्यक्ति (दादा या दादी जो भी हो )जिन्हें जीवन का गहन अनुभव होता है ------वे अपने अनुभव परिवार के सभी सदस्यों के साथ बाटते है +----अतः वो ब्रह्मण का कार्य करते है------ ,,,दूसरी श्रेणी में वो लोग आते हैजो अनुभव में अभी पूर्ण रूप से नहीं पगे है-----परन्तु बलिस्ट और जोशीले है ------अतः वो परिवार की मान्यताओं की रक्षा के लिए नियुक्त होते है ------और उनके मन में परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति कर्तव्य बोध होता है---- और वो परिवार के प्रत्येक सदस्य के पालन पोषण के लिए जिम्मेदार भी होते है----- ,,,ऐसे सदस्य दूसरी श्रेणी में आते है इनमे (पिता या चाचा आदि ) इन्हें क्षत्रिय कह सकते है ----तीसरी श्रेणी में घर की महिलाए आती है जिनके हाथो में प्रबंधन का काम होता है------ अन्न भण्डारण का काम होता है---वस्तु के विनमय(पास पड़ोस से वस्तुओ के आदान प्रदान की जिम्मेदारी ) का काम होता है------ और परिवार के अर्थ को भी नियंत्रित करती है -----इन्हें हम वैश कह सकते है ,-----, चौथी श्रेणी में घर के बच्चे या द्वितीय श्रेणी की महिलाए (पुत्र बधुये ,, )और पुत्र और पौत्र इत्यादि------ जिनके जिम्मे घर की साफ़ सफाई और उपरोक्त तीनो श्रेणी के सदस्यों की आज्ञा पालन का कार्य आता है ------उन्हें हम सूद्र कह सकते है---- ,,, अब घर में चारो वर्णों के होते हुए भी घर का क्या कोई सदस्य आपस में वैर करता है------ सभी मिल जुल के रहते है और सबको समान अधिकार प्राप्त है -----और उनके कार्य क्षेत्र योग्यता के अनुसार परिवर्तित भी होते रहते है----- या हम यूँ कह सकते है जाति योग्यता के हिसाब से बदलती भी रहती है----- जो बच्चे अभी सूद्र है वो बड़े हो कर क्षत्रिय या ब्रह्मण बन सकते है -----,,,, ठीक इसी तरह समाज में भी जाति व्यवस्था (वर्णाश्रम व्यवस्था )को हम देख सकते है -----समाज का वो वर्ग जो बुद्धि जीवी है तीव्र ज्ञान रखता है (अध्यापक ,वैज्ञानिक डॉ ,,ज्योत्षी )ब्राहमण है----- दूसरा वर्ग जो समाज की स्तिथि और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है (राजनेता सैनिक और पत्रकार आदि ) क्षत्रिय है--- त्रतीय बर्ग जो समाज की अर्थ व्यस्था और उपभोगीता के लिए जिम्मेदार है (व्यपारी ) उन्हें हम वैश कह सकते है----- ,,,, चतुर्थ वर्ग उन लोगो का है जो समाज के मेहनतकस लोग (सभी प्रकार के श्रमिक किशान इत्यादी )है जो समाज की जड़ का पर्याय है जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है------ उन्हें हम सूद्र कह सकते है ------ ,,, अब कौन व्यक्ति इस वर्ण व्यवस्था पर उंगली उठाये गा और कहेगा की ये गलत है-----,,,, फिर वर्णव्यवस्था की बुराई क्यूँ ,?,,, बुराई वहा से सुरु होती है -----जब ये वर्ण व्यवस्था कर्म के हिसाब से ना हो कर जन्म के हिसाब से हो जाती-----

(जैसे की आज कल है ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण होताहै -----क्षत्रिय का क्षत्रिय भले ही भले ही उनके अन्दर ब्राह्मणोचित या क्षत्रियोचित गुण ना हो )है बस यही से बुराई की जड़ सुरु होती है------ और वर्णव्यवस्था का विरोध भी ,,,, तो आवश्यकता है सही सोच विकशित करने की ------और यह समझने की वर्ण व्यवस्था जन्म परक नहीं कर्म परक है----- कुछ तथा कथित जाति वादी (जिनमे भगवान् मनु का विरोध करने वाले राजनेता है )इसका विरोध कर सकते है----- और धर्म ग्रंथो का गलत हवाला दे सकते है (की वर्ण व्यवस्था जन्म परक है )परन्तु यहाँ पर मै उन्हें उनकी जबान में उत्तर दूंगा और धर्म ग्रंथो के रहस्य खोलूँगा------ ,,,,

शुरु करते है भगवान् गणेश द्बारा लिखित पवित्र ग्रन्थ महाभारत से जिसमे जिसमे धर्म राज युधिस्ठर स्वयं मेरी बात का समर्थन(कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती है और कर्म के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ) करते है --------

वे कहते है ,,,,

श्रणु यक्ष कुतं तात् , स्वध्यायोन श्रतम |

कारणम् हि द्विजत्वे व्रतमेव संशयः ||

(महाभारत वन पर्व )

अर्थात :कोई केवल वेद पाठन या कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण नहीं बनता बल्कि अपने कर्मो से ब्राह्मण बनता है

इतना ही नहीं हमारे धार्मिक ग्रन्थ भरे पड़े है उन उदाहरणों से जिनसे यह सिद्ध होता है की जाति जन्म से नहीं कर्म से होती है और योग्यता बर्धन के साथ जाती बदली भी जा सकती है ,, और ये भी हो सकता है की माता पिता दोनों ब्राहमण हो और पुत्र सूद्र हो जाए या फिर इसका उल्टा हो (अर्थात माता पिता दोनों सूद्र हो और पुत्र ब्राहमण या क्षत्रिय ये उसकी योग्यता पर निर्भर है कुछ उदहारण देखते है ,,,,

अत्री मुनि (ब्राहमण )की दस पत्निया भद्रा अभद्रा आदि जो की रजा भाद्र्श्वराज (जो की क्षत्रिय थे ) की कन्याये थी और उन कन्याओं की माँ अप्सरा (नर्तकी )थी ,, दतात्रेय दुर्वाषा अत्री मुनि के पुत्र थे जो की ब्राह्मण हुए ||
(
लिंग पुराण अध्याय ६३ )
अब आप कहेगे की जाती तो पिता से निर्धारित होती है अगर पिता ब्रह्मण है तो पुत्र तो स्वभाविक रूप से ब्रह्मण होगे ही ,,,नहीं नहीं ऐसा नहीं है वो अपनी योग्यता से ब्राह्मण हुए थे आगे देखे ,,,
-मातंग ऋषि जो की ब्रह्मण थे ,, एक ब्राह्मणी के गर्भ से चांडाल नाई के द्बारा उत्पन्न हुए थे ||
(
महाभारत अनुपर्व अध्याय २२ )
-ऋषभ देव राजा नाभि (जो कि क्षत्रिय ) के पुत्र थे इनसे सौ पुत्र हुय्र जिनमे से इक्यासी ब्राह्मण हुए
(
देवी भागवत स्कन्द )
-राजा नीव (क्षत्रिय )ने शुक्र (ब्राह्मण ) कि कन्या से विवाह किया इनके कुल में मुदगल ,अवनीर, व्रह्द्र्थ ,काम्पिल्य और संजय हुए मुदगल से ब्राह्मणों का मौदगल्य गोत्र चला
(
भागवत स्कंध अध्याय २१ )

इतना ही नहीं मै अन्य अनेक और उदहारण दे सकता हूँ जिनसे ये सिद्ध होता है कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती थी , ये उदहारण ये भी सिद्ध करते है कि विजातीय विवाह प्रचलित थे और मान्य थे एक और उदाहरण महा ऋषि काक्षिवान का
महाऋषि काक्षिवान (ब्राह्मण ) के पिता दीर्घतमा क्षत्रिय थे और ये उनके द्बारा एक शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न

भगवान् मनु जिन्हें कथित प्रगति वादी वर्णाश्रम व्यवस्था के लिए पानी पी पी कर कोसते है , ने मनु स्म्रति में स्पस्ट कहा है कि जाति कर्म से निर्धारित होती है जन्म से नहीं और क्रम के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ,,
भगवान् मनु कहते है ,,,
शुद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैती शूद्र्ताम |
क्षत्रिय यज्जन में वन्तु विधाद्वैश्याप्तथैव च//|

(मनु स्मरति अध्याय १० श्लोक ६५ )
अर्थात : शुद्र ब्राह्मणता को प्राप्त होता है , और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होता है इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश कुल में जन्म्लेने बालो को जानो |
इससे स्पस्ट है कि जाति जन्म से नहीं थी योग्य शूद्र ब्राह्मण हो सकता था और अयोग्य ब्राह्मण शूद्र ,, इतना ही नहीं भगवान् मनु ने कर्म पर बहुत जोर दिया है वे कहते है अपनी अपनी जाति बनाये रखने के लिए या जाति को उच्च बनाने के लिए विहित कर्मो का करना आवश्यक है इस श्लोक में --

भगवान् मनु कहते है--

योSनधीत्य द्विजो वेद मन्यन्त्र कुरुते श्रमम|
स जीवन्नेव शुद्र्त्वमाशु गच्छति सन्वया ||
(मनु स्म्रति अध्याय २१ श्लोक १६८ )
अर्थात : जो द्विज वेद को छोड़ कर अन्यंत्र टक्करे मारता है वह जीता हुआ सपरिवार शूद्र्त्व को प्राप्त होता है |
इतना ही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था बनाये रखना राज धर्म होता था और उनकी शुद्धता और स्पष्टता का भी आकलन होता था योगता में गिरने पर उच्च जाति छीन ली जाति थी , और योग्य होने पर जाति प्रदान भी कि जाती थी,,,,
न तिष्ठति तू यः पूर्व नोपास्ते यास्तु पश्चिमाम |
स शूद्रव्र्द्वहिस्काय्य्र : सर्वस्माद्रद्विज कर्मणा ||

(मनु स्मरति अध्याय २२ श्लोक १०३ )
अर्थात : जो मनुष्य प्रातः वा सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र है और उसे समस्त द्विज कर्मो से बाहर कर देना चाहिए


इतना ही नहीं उस समय के अनेक अन्य निति कारो ने भी इसी चीज कि व्याख्या अपने अपने निति शास्त्रों में कीअगर सभी का उदारहण लेने बैठ गए तो बात बहुत लम्बी खिच जाए गी वैसे पर्याप्त तथ्य तो हम दे ही चुके है जो तर्क शील व्यक्ति की जिज्ञासा शांत करने के लिए काफी है और कुतर्की को हजार तर्क भी अगर और दूँ तो ना काफी है फिर दोवैराग अन्य निति कारो की स्म्र्तिया (निति ग्रन्थ ,कानून की पुस्तके ) तो देख ही लूँ
देखिये कर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् पराशर क्या कहते है ----

अग्निकाययित्परिभ्रस्टा : सध्योपासन : वर्जिता |
वेदं चैवसधियान :सर्वे ते वृषला स्मर्ता||
(
पराशर स्म्रति अध्याय १२ श्लोक २९)
अर्थात :हवन वा संध्या से रहित वेदों को पढने वाला ब्राह्मण , ब्राह्मण नहीं शूद्र है|
बिलकुल यही बात शंख स्म्रति भी दोहराती है देखे ---
व्रत्या शूद्रसमास्तावद्विजेयास्ते विच्क्षणे |
याव द्वेदे जायन्ते द्विजा जेयास्त्वा परम |
(शंख स्म्रति अध्याय श्लोक )
अब मुझे लगता है मैंने काफी उदहारण दे दिए और ये काफी है है मुझे अपनी बात सिद्ध करने के लिए और भारतीय संस्क्रती कि अमूल्य निधि को कुरीति समझ कर उसे छोड़ रही आधुनिक पीढी के सामने उसके महत्त्व को स्पस्ट करने के लिए ,,,,,,
क्षमा प्रार्थना: प्रार्थना है कि व्याकरण कि गलतियों पर ध्यान दिया जाए (क्यूँ कि मै विज्ञान का विधार्थी हूँ औरहिंदी ज्यादा अच्छी नहीं है )और लेख के उद्देश्य को समझा जाए