Thursday, August 20, 2009

क्या आप ब्राह्मण है ? सोचिये |

कुछ ऐसी चीजे होती है जो मन को व्यथित करती है ...... एक त्रष्णा भी भरती है .... जिनके बारे में सोच कर मन आंदोलित भी हो जाता है ..... अब क्यूँ ही वो हमारी पुरातन मान्यताये हो ,विचार धाराए हो , या फिर परम्पराए हो ...... यहाँ पर मेरा मकसद किसी परंपरा विचारधारा या मान्यता को उठाना या गिराना नहीं है ..... बल्कि उसका संयम पूर्ण अध्यन करके उसके सही उद्देश्य और उपयोगता का पता लगाना है ------ कई परम्पराए आज जिस रूप में है और हमें लगता है की निर्मूल है------- इनका होना हमारे लिए ठीक नहीं है -------और ये अनावश्यक है ------परन्तु ये भी हो सकता है की ये परम्पराए -----जो हमें अब निर्मूल और बेतुकी लगती है ------हो सकता है अपने मूल रूप से अलग हो -----या जिस रूप में बनायी गयी हो हम उन्हें उस रूप में ले ही नहीं रहे हो------ तो किसी परंपरा या विचार धारा का खंडन करने से पहले -----या उनपर अपनी राय रखने से पहले हमें उनका पूर्ण अध्यन करना चाहिए -------, और ये अध्यन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की उत्कर्ष्टता और उसके स्वर्णिम इतिहास को ध्यान में रख कर करना चाहिए ------- ,, किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर नहीं --------,,,,,, क्यों की जो परम्पराए उस समय बनी और अगर वो अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है ---------, तो उनका विरोध करने से पहले हमें सौ बार सोचना चाहिए ------- गहन अध्यन करना चाहिए----- ,,,, क्यूँ की परम्पराए अगर अपने मूल रूप में है तो उनके गलत होने के चांस नगण्य है--- ये मेरा व्यक्तिक मत है -----,, परन्तु परम्पराओं में मिलाबट से भी इनकार नहीं किया जा सकता--- क्यूँ की हमारी संस्क्रती अनेक उथल पुथल से गुजरी है ----- और अनेक अन्य सभ्यताओं और संस्क्रतियो का मिश्रण भी इसमें हुआ है -----अतः जो परम्पराए आज प्रचलित है वे बिलकुल ठीक है --- और अपने मूल रूप में है ये बिलकुल सही ढंग से नहीं कहा जा सकता ------, परन्तु परम्पराओ को नाकारा भी नहीं जा सकता---- तो फिर क्या किया जाए ? ,----,, अब आबश्यकता है---- कि किसी भी परंपरा या विचार धारा के पीछे छुपे तथ्य और कारण की जान कारी ( जो बिना अध्यन के संभव नहीं है ) के बिना हमें उस परम्परा या विचार धरा का विरोध नहीं करना चाहिए------ अतः मै तो यही कहना चाहूँगा की किसी भी परंपरा को नकारने से पहले उसका गहन अध्यन आवश्यक है ------,, परन्तु आज कल के कथित प्रगति वादी और बुद्धिजीवी लोग (सभी नहीं ) या तो परम्पराओं को मानते ही नहीं है---- या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर उनका अध्यन करते है------ और उनमे अनेक कमियां निकाल कर उन्हें नकार देते है------ या फिर अपने फायदे के अनुसार उनकी अपने मन माफिक व्याख्या भी करते है----- ,, ऐसी अनेक परम्पराए जिनकी गलत ढंग से व्याख्या की गयी आज समाज के लिए सर दर्द बनी हुई है ------और कई लोगो की तो सत्ता ही इन परम्पराओ की गलत व्याख्या पर ही टिकी हुई है----- इन्ही में एक जाति व्यवस्था या वर्णाश्रम व्यवस्था भी है------ ,, जिसका विरोध करके या समर्थन कर कई राज नैतिक दल अपनी राज नैतिक रोटियां सेक रहे है----- और आम जन को गुमराह कर रहे है----- ,,,,,, अब कई सबाल स्वतः ही हमारे दिमाग में उठ खड़े होते है ------की जाति व्यवस्था में तो समाज को ऊपर और नीचे विभाजित किया जाता है------ ये तो मनुष्य और मनुष्य के बीच खाई खड़ी करती है ----- ,,, तो फिर क्या वर्णाश्रम व्यवस्था खराब है ?,,, क्या उसे नहीं होना चहिये ?ऐसे ना जाने कितने सबाल हमरे दिमाग में उफान मारने लगते हैं ----,,, अगर आप मुझे से सच पूछे की मेरी राय क्या है------ तो मै स्पस्ट कहूँ गा की वर्णाश्रम व्यस्था में कोई दोष नहीं है----- अगर आबश्यकता है तो उसकी पुनार्व्यखाया की---- और उसे समझने की ------,,, और मै तो यहाँ तक कहूँगा की वर्णाश्रम व्यस्था के बिना समाज सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता -----,, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था की बहुत जरुरत है----- ,,, यहाँ पर मै वर्णाश्रम व्यवस्था के मूल रूप और उसके स्थापना के कुछ तथ्य रखूँगा------|

सबसे पहले हम बात करते है ----वर्णाश्रम व्यवस्था की आवश्यकता की वर्णाश्रम व्यवस्था की आबश्यकता ही क्यूँ है? और अगर है तो इसका आरोही या अवरोही क्रम क्यूँ है,?, आखिर वर्णाश्रम व्यवस्था में सब को समानता क्यूँ नहीं ? कोई एक वर्ग उंचा और दूसरा वर्ग नीचा क्यूँ ?और किसी वर्ग के उच्च या निम्न होने के माप दंड क्या है ?,,,

शुरू करते है आबश्यकता से----- ,,, किसी भी रास्ट्र ,समाज या परिवार ,को सुचारू रूप से चलने के लिए कुछ नियम या व्यवस्थाये परिवार समाज या रास्ट्र के लोगो द्वारा निर्धारित की जाती है------ जो लचीली और लोचबान होती है----- जो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है----- इनका मकसद केवल व्यवस्था कायम करना होता है बंधन बनाना नहीं------ ठीक उसी तरह की व्यवस्था जाति व्यवस्था भी है-----,,, इसे एक परिवार से शुरू करते है----- हम सभी जानते है कि भारतीय परिवार व्यवस्था विश्व की शीर्ष परिवार व्यवस्था है ------अब एक परिवार को ठीक और सुचारू रूप से चलाने के लिए परिवार के प्रतेक सदस्य का कार्य निर्धारित होता है------ जो परिवार के मुखिया के द्वारा उसकी योग्यता के हिसाब से उसे दिया जाता है -----,, जैसे प्रत्येक घर में कोई बुजुर्ग व्यक्ति (दादा या दादी जो भी हो )जिन्हें जीवन का गहन अनुभव होता है ------वे अपने अनुभव परिवार के सभी सदस्यों के साथ बाटते है +----अतः वो ब्रह्मण का कार्य करते है------ ,,,दूसरी श्रेणी में वो लोग आते हैजो अनुभव में अभी पूर्ण रूप से नहीं पगे है-----परन्तु बलिस्ट और जोशीले है ------अतः वो परिवार की मान्यताओं की रक्षा के लिए नियुक्त होते है ------और उनके मन में परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति कर्तव्य बोध होता है---- और वो परिवार के प्रत्येक सदस्य के पालन पोषण के लिए जिम्मेदार भी होते है----- ,,,ऐसे सदस्य दूसरी श्रेणी में आते है इनमे (पिता या चाचा आदि ) इन्हें क्षत्रिय कह सकते है ----तीसरी श्रेणी में घर की महिलाए आती है जिनके हाथो में प्रबंधन का काम होता है------ अन्न भण्डारण का काम होता है---वस्तु के विनमय(पास पड़ोस से वस्तुओ के आदान प्रदान की जिम्मेदारी ) का काम होता है------ और परिवार के अर्थ को भी नियंत्रित करती है -----इन्हें हम वैश कह सकते है ,-----, चौथी श्रेणी में घर के बच्चे या द्वितीय श्रेणी की महिलाए (पुत्र बधुये ,, )और पुत्र और पौत्र इत्यादि------ जिनके जिम्मे घर की साफ़ सफाई और उपरोक्त तीनो श्रेणी के सदस्यों की आज्ञा पालन का कार्य आता है ------उन्हें हम सूद्र कह सकते है---- ,,, अब घर में चारो वर्णों के होते हुए भी घर का क्या कोई सदस्य आपस में वैर करता है------ सभी मिल जुल के रहते है और सबको समान अधिकार प्राप्त है -----और उनके कार्य क्षेत्र योग्यता के अनुसार परिवर्तित भी होते रहते है----- या हम यूँ कह सकते है जाति योग्यता के हिसाब से बदलती भी रहती है----- जो बच्चे अभी सूद्र है वो बड़े हो कर क्षत्रिय या ब्रह्मण बन सकते है -----,,,, ठीक इसी तरह समाज में भी जाति व्यवस्था (वर्णाश्रम व्यवस्था )को हम देख सकते है -----समाज का वो वर्ग जो बुद्धि जीवी है तीव्र ज्ञान रखता है (अध्यापक ,वैज्ञानिक डॉ ,,ज्योत्षी )ब्राहमण है----- दूसरा वर्ग जो समाज की स्तिथि और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है (राजनेता सैनिक और पत्रकार आदि ) क्षत्रिय है--- त्रतीय बर्ग जो समाज की अर्थ व्यस्था और उपभोगीता के लिए जिम्मेदार है (व्यपारी ) उन्हें हम वैश कह सकते है----- ,,,, चतुर्थ वर्ग उन लोगो का है जो समाज के मेहनतकस लोग (सभी प्रकार के श्रमिक किशान इत्यादी )है जो समाज की जड़ का पर्याय है जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है------ उन्हें हम सूद्र कह सकते है ------ ,,, अब कौन व्यक्ति इस वर्ण व्यवस्था पर उंगली उठाये गा और कहेगा की ये गलत है-----,,,, फिर वर्णव्यवस्था की बुराई क्यूँ ,?,,, बुराई वहा से सुरु होती है -----जब ये वर्ण व्यवस्था कर्म के हिसाब से ना हो कर जन्म के हिसाब से हो जाती-----

(जैसे की आज कल है ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण होताहै -----क्षत्रिय का क्षत्रिय भले ही भले ही उनके अन्दर ब्राह्मणोचित या क्षत्रियोचित गुण ना हो )है बस यही से बुराई की जड़ सुरु होती है------ और वर्णव्यवस्था का विरोध भी ,,,, तो आवश्यकता है सही सोच विकशित करने की ------और यह समझने की वर्ण व्यवस्था जन्म परक नहीं कर्म परक है----- कुछ तथा कथित जाति वादी (जिनमे भगवान् मनु का विरोध करने वाले राजनेता है )इसका विरोध कर सकते है----- और धर्म ग्रंथो का गलत हवाला दे सकते है (की वर्ण व्यवस्था जन्म परक है )परन्तु यहाँ पर मै उन्हें उनकी जबान में उत्तर दूंगा और धर्म ग्रंथो के रहस्य खोलूँगा------ ,,,,

शुरु करते है भगवान् गणेश द्बारा लिखित पवित्र ग्रन्थ महाभारत से जिसमे जिसमे धर्म राज युधिस्ठर स्वयं मेरी बात का समर्थन(कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती है और कर्म के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ) करते है --------

वे कहते है ,,,,

श्रणु यक्ष कुतं तात् , स्वध्यायोन श्रतम |

कारणम् हि द्विजत्वे व्रतमेव संशयः ||

(महाभारत वन पर्व )

अर्थात :कोई केवल वेद पाठन या कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण नहीं बनता बल्कि अपने कर्मो से ब्राह्मण बनता है

इतना ही नहीं हमारे धार्मिक ग्रन्थ भरे पड़े है उन उदाहरणों से जिनसे यह सिद्ध होता है की जाति जन्म से नहीं कर्म से होती है और योग्यता बर्धन के साथ जाती बदली भी जा सकती है ,, और ये भी हो सकता है की माता पिता दोनों ब्राहमण हो और पुत्र सूद्र हो जाए या फिर इसका उल्टा हो (अर्थात माता पिता दोनों सूद्र हो और पुत्र ब्राहमण या क्षत्रिय ये उसकी योग्यता पर निर्भर है कुछ उदहारण देखते है ,,,,

अत्री मुनि (ब्राहमण )की दस पत्निया भद्रा अभद्रा आदि जो की रजा भाद्र्श्वराज (जो की क्षत्रिय थे ) की कन्याये थी और उन कन्याओं की माँ अप्सरा (नर्तकी )थी ,, दतात्रेय दुर्वाषा अत्री मुनि के पुत्र थे जो की ब्राह्मण हुए ||
(
लिंग पुराण अध्याय ६३ )
अब आप कहेगे की जाती तो पिता से निर्धारित होती है अगर पिता ब्रह्मण है तो पुत्र तो स्वभाविक रूप से ब्रह्मण होगे ही ,,,नहीं नहीं ऐसा नहीं है वो अपनी योग्यता से ब्राह्मण हुए थे आगे देखे ,,,
-मातंग ऋषि जो की ब्रह्मण थे ,, एक ब्राह्मणी के गर्भ से चांडाल नाई के द्बारा उत्पन्न हुए थे ||
(
महाभारत अनुपर्व अध्याय २२ )
-ऋषभ देव राजा नाभि (जो कि क्षत्रिय ) के पुत्र थे इनसे सौ पुत्र हुय्र जिनमे से इक्यासी ब्राह्मण हुए
(
देवी भागवत स्कन्द )
-राजा नीव (क्षत्रिय )ने शुक्र (ब्राह्मण ) कि कन्या से विवाह किया इनके कुल में मुदगल ,अवनीर, व्रह्द्र्थ ,काम्पिल्य और संजय हुए मुदगल से ब्राह्मणों का मौदगल्य गोत्र चला
(
भागवत स्कंध अध्याय २१ )

इतना ही नहीं मै अन्य अनेक और उदहारण दे सकता हूँ जिनसे ये सिद्ध होता है कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती थी , ये उदहारण ये भी सिद्ध करते है कि विजातीय विवाह प्रचलित थे और मान्य थे एक और उदाहरण महा ऋषि काक्षिवान का
महाऋषि काक्षिवान (ब्राह्मण ) के पिता दीर्घतमा क्षत्रिय थे और ये उनके द्बारा एक शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न

भगवान् मनु जिन्हें कथित प्रगति वादी वर्णाश्रम व्यवस्था के लिए पानी पी पी कर कोसते है , ने मनु स्म्रति में स्पस्ट कहा है कि जाति कर्म से निर्धारित होती है जन्म से नहीं और क्रम के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ,,
भगवान् मनु कहते है ,,,
शुद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैती शूद्र्ताम |
क्षत्रिय यज्जन में वन्तु विधाद्वैश्याप्तथैव च//|

(मनु स्मरति अध्याय १० श्लोक ६५ )
अर्थात : शुद्र ब्राह्मणता को प्राप्त होता है , और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होता है इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश कुल में जन्म्लेने बालो को जानो |
इससे स्पस्ट है कि जाति जन्म से नहीं थी योग्य शूद्र ब्राह्मण हो सकता था और अयोग्य ब्राह्मण शूद्र ,, इतना ही नहीं भगवान् मनु ने कर्म पर बहुत जोर दिया है वे कहते है अपनी अपनी जाति बनाये रखने के लिए या जाति को उच्च बनाने के लिए विहित कर्मो का करना आवश्यक है इस श्लोक में --

भगवान् मनु कहते है--

योSनधीत्य द्विजो वेद मन्यन्त्र कुरुते श्रमम|
स जीवन्नेव शुद्र्त्वमाशु गच्छति सन्वया ||
(मनु स्म्रति अध्याय २१ श्लोक १६८ )
अर्थात : जो द्विज वेद को छोड़ कर अन्यंत्र टक्करे मारता है वह जीता हुआ सपरिवार शूद्र्त्व को प्राप्त होता है |
इतना ही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था बनाये रखना राज धर्म होता था और उनकी शुद्धता और स्पष्टता का भी आकलन होता था योगता में गिरने पर उच्च जाति छीन ली जाति थी , और योग्य होने पर जाति प्रदान भी कि जाती थी,,,,
न तिष्ठति तू यः पूर्व नोपास्ते यास्तु पश्चिमाम |
स शूद्रव्र्द्वहिस्काय्य्र : सर्वस्माद्रद्विज कर्मणा ||

(मनु स्मरति अध्याय २२ श्लोक १०३ )
अर्थात : जो मनुष्य प्रातः वा सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र है और उसे समस्त द्विज कर्मो से बाहर कर देना चाहिए


इतना ही नहीं उस समय के अनेक अन्य निति कारो ने भी इसी चीज कि व्याख्या अपने अपने निति शास्त्रों में कीअगर सभी का उदारहण लेने बैठ गए तो बात बहुत लम्बी खिच जाए गी वैसे पर्याप्त तथ्य तो हम दे ही चुके है जो तर्क शील व्यक्ति की जिज्ञासा शांत करने के लिए काफी है और कुतर्की को हजार तर्क भी अगर और दूँ तो ना काफी है फिर दोवैराग अन्य निति कारो की स्म्र्तिया (निति ग्रन्थ ,कानून की पुस्तके ) तो देख ही लूँ
देखिये कर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् पराशर क्या कहते है ----

अग्निकाययित्परिभ्रस्टा : सध्योपासन : वर्जिता |
वेदं चैवसधियान :सर्वे ते वृषला स्मर्ता||
(
पराशर स्म्रति अध्याय १२ श्लोक २९)
अर्थात :हवन वा संध्या से रहित वेदों को पढने वाला ब्राह्मण , ब्राह्मण नहीं शूद्र है|
बिलकुल यही बात शंख स्म्रति भी दोहराती है देखे ---
व्रत्या शूद्रसमास्तावद्विजेयास्ते विच्क्षणे |
याव द्वेदे जायन्ते द्विजा जेयास्त्वा परम |
(शंख स्म्रति अध्याय श्लोक )
अब मुझे लगता है मैंने काफी उदहारण दे दिए और ये काफी है है मुझे अपनी बात सिद्ध करने के लिए और भारतीय संस्क्रती कि अमूल्य निधि को कुरीति समझ कर उसे छोड़ रही आधुनिक पीढी के सामने उसके महत्त्व को स्पस्ट करने के लिए ,,,,,,
क्षमा प्रार्थना: प्रार्थना है कि व्याकरण कि गलतियों पर ध्यान दिया जाए (क्यूँ कि मै विज्ञान का विधार्थी हूँ औरहिंदी ज्यादा अच्छी नहीं है )और लेख के उद्देश्य को समझा जाए