Thursday, August 20, 2009

क्या आप ब्राह्मण है ? सोचिये |

कुछ ऐसी चीजे होती है जो मन को व्यथित करती है ...... एक त्रष्णा भी भरती है .... जिनके बारे में सोच कर मन आंदोलित भी हो जाता है ..... अब क्यूँ ही वो हमारी पुरातन मान्यताये हो ,विचार धाराए हो , या फिर परम्पराए हो ...... यहाँ पर मेरा मकसद किसी परंपरा विचारधारा या मान्यता को उठाना या गिराना नहीं है ..... बल्कि उसका संयम पूर्ण अध्यन करके उसके सही उद्देश्य और उपयोगता का पता लगाना है ------ कई परम्पराए आज जिस रूप में है और हमें लगता है की निर्मूल है------- इनका होना हमारे लिए ठीक नहीं है -------और ये अनावश्यक है ------परन्तु ये भी हो सकता है की ये परम्पराए -----जो हमें अब निर्मूल और बेतुकी लगती है ------हो सकता है अपने मूल रूप से अलग हो -----या जिस रूप में बनायी गयी हो हम उन्हें उस रूप में ले ही नहीं रहे हो------ तो किसी परंपरा या विचार धारा का खंडन करने से पहले -----या उनपर अपनी राय रखने से पहले हमें उनका पूर्ण अध्यन करना चाहिए -------, और ये अध्यन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की उत्कर्ष्टता और उसके स्वर्णिम इतिहास को ध्यान में रख कर करना चाहिए ------- ,, किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर नहीं --------,,,,,, क्यों की जो परम्पराए उस समय बनी और अगर वो अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है ---------, तो उनका विरोध करने से पहले हमें सौ बार सोचना चाहिए ------- गहन अध्यन करना चाहिए----- ,,,, क्यूँ की परम्पराए अगर अपने मूल रूप में है तो उनके गलत होने के चांस नगण्य है--- ये मेरा व्यक्तिक मत है -----,, परन्तु परम्पराओं में मिलाबट से भी इनकार नहीं किया जा सकता--- क्यूँ की हमारी संस्क्रती अनेक उथल पुथल से गुजरी है ----- और अनेक अन्य सभ्यताओं और संस्क्रतियो का मिश्रण भी इसमें हुआ है -----अतः जो परम्पराए आज प्रचलित है वे बिलकुल ठीक है --- और अपने मूल रूप में है ये बिलकुल सही ढंग से नहीं कहा जा सकता ------, परन्तु परम्पराओ को नाकारा भी नहीं जा सकता---- तो फिर क्या किया जाए ? ,----,, अब आबश्यकता है---- कि किसी भी परंपरा या विचार धारा के पीछे छुपे तथ्य और कारण की जान कारी ( जो बिना अध्यन के संभव नहीं है ) के बिना हमें उस परम्परा या विचार धरा का विरोध नहीं करना चाहिए------ अतः मै तो यही कहना चाहूँगा की किसी भी परंपरा को नकारने से पहले उसका गहन अध्यन आवश्यक है ------,, परन्तु आज कल के कथित प्रगति वादी और बुद्धिजीवी लोग (सभी नहीं ) या तो परम्पराओं को मानते ही नहीं है---- या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर उनका अध्यन करते है------ और उनमे अनेक कमियां निकाल कर उन्हें नकार देते है------ या फिर अपने फायदे के अनुसार उनकी अपने मन माफिक व्याख्या भी करते है----- ,, ऐसी अनेक परम्पराए जिनकी गलत ढंग से व्याख्या की गयी आज समाज के लिए सर दर्द बनी हुई है ------और कई लोगो की तो सत्ता ही इन परम्पराओ की गलत व्याख्या पर ही टिकी हुई है----- इन्ही में एक जाति व्यवस्था या वर्णाश्रम व्यवस्था भी है------ ,, जिसका विरोध करके या समर्थन कर कई राज नैतिक दल अपनी राज नैतिक रोटियां सेक रहे है----- और आम जन को गुमराह कर रहे है----- ,,,,,, अब कई सबाल स्वतः ही हमारे दिमाग में उठ खड़े होते है ------की जाति व्यवस्था में तो समाज को ऊपर और नीचे विभाजित किया जाता है------ ये तो मनुष्य और मनुष्य के बीच खाई खड़ी करती है ----- ,,, तो फिर क्या वर्णाश्रम व्यवस्था खराब है ?,,, क्या उसे नहीं होना चहिये ?ऐसे ना जाने कितने सबाल हमरे दिमाग में उफान मारने लगते हैं ----,,, अगर आप मुझे से सच पूछे की मेरी राय क्या है------ तो मै स्पस्ट कहूँ गा की वर्णाश्रम व्यस्था में कोई दोष नहीं है----- अगर आबश्यकता है तो उसकी पुनार्व्यखाया की---- और उसे समझने की ------,,, और मै तो यहाँ तक कहूँगा की वर्णाश्रम व्यस्था के बिना समाज सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता -----,, समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था की बहुत जरुरत है----- ,,, यहाँ पर मै वर्णाश्रम व्यवस्था के मूल रूप और उसके स्थापना के कुछ तथ्य रखूँगा------|

सबसे पहले हम बात करते है ----वर्णाश्रम व्यवस्था की आवश्यकता की वर्णाश्रम व्यवस्था की आबश्यकता ही क्यूँ है? और अगर है तो इसका आरोही या अवरोही क्रम क्यूँ है,?, आखिर वर्णाश्रम व्यवस्था में सब को समानता क्यूँ नहीं ? कोई एक वर्ग उंचा और दूसरा वर्ग नीचा क्यूँ ?और किसी वर्ग के उच्च या निम्न होने के माप दंड क्या है ?,,,

शुरू करते है आबश्यकता से----- ,,, किसी भी रास्ट्र ,समाज या परिवार ,को सुचारू रूप से चलने के लिए कुछ नियम या व्यवस्थाये परिवार समाज या रास्ट्र के लोगो द्वारा निर्धारित की जाती है------ जो लचीली और लोचबान होती है----- जो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है----- इनका मकसद केवल व्यवस्था कायम करना होता है बंधन बनाना नहीं------ ठीक उसी तरह की व्यवस्था जाति व्यवस्था भी है-----,,, इसे एक परिवार से शुरू करते है----- हम सभी जानते है कि भारतीय परिवार व्यवस्था विश्व की शीर्ष परिवार व्यवस्था है ------अब एक परिवार को ठीक और सुचारू रूप से चलाने के लिए परिवार के प्रतेक सदस्य का कार्य निर्धारित होता है------ जो परिवार के मुखिया के द्वारा उसकी योग्यता के हिसाब से उसे दिया जाता है -----,, जैसे प्रत्येक घर में कोई बुजुर्ग व्यक्ति (दादा या दादी जो भी हो )जिन्हें जीवन का गहन अनुभव होता है ------वे अपने अनुभव परिवार के सभी सदस्यों के साथ बाटते है +----अतः वो ब्रह्मण का कार्य करते है------ ,,,दूसरी श्रेणी में वो लोग आते हैजो अनुभव में अभी पूर्ण रूप से नहीं पगे है-----परन्तु बलिस्ट और जोशीले है ------अतः वो परिवार की मान्यताओं की रक्षा के लिए नियुक्त होते है ------और उनके मन में परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति कर्तव्य बोध होता है---- और वो परिवार के प्रत्येक सदस्य के पालन पोषण के लिए जिम्मेदार भी होते है----- ,,,ऐसे सदस्य दूसरी श्रेणी में आते है इनमे (पिता या चाचा आदि ) इन्हें क्षत्रिय कह सकते है ----तीसरी श्रेणी में घर की महिलाए आती है जिनके हाथो में प्रबंधन का काम होता है------ अन्न भण्डारण का काम होता है---वस्तु के विनमय(पास पड़ोस से वस्तुओ के आदान प्रदान की जिम्मेदारी ) का काम होता है------ और परिवार के अर्थ को भी नियंत्रित करती है -----इन्हें हम वैश कह सकते है ,-----, चौथी श्रेणी में घर के बच्चे या द्वितीय श्रेणी की महिलाए (पुत्र बधुये ,, )और पुत्र और पौत्र इत्यादि------ जिनके जिम्मे घर की साफ़ सफाई और उपरोक्त तीनो श्रेणी के सदस्यों की आज्ञा पालन का कार्य आता है ------उन्हें हम सूद्र कह सकते है---- ,,, अब घर में चारो वर्णों के होते हुए भी घर का क्या कोई सदस्य आपस में वैर करता है------ सभी मिल जुल के रहते है और सबको समान अधिकार प्राप्त है -----और उनके कार्य क्षेत्र योग्यता के अनुसार परिवर्तित भी होते रहते है----- या हम यूँ कह सकते है जाति योग्यता के हिसाब से बदलती भी रहती है----- जो बच्चे अभी सूद्र है वो बड़े हो कर क्षत्रिय या ब्रह्मण बन सकते है -----,,,, ठीक इसी तरह समाज में भी जाति व्यवस्था (वर्णाश्रम व्यवस्था )को हम देख सकते है -----समाज का वो वर्ग जो बुद्धि जीवी है तीव्र ज्ञान रखता है (अध्यापक ,वैज्ञानिक डॉ ,,ज्योत्षी )ब्राहमण है----- दूसरा वर्ग जो समाज की स्तिथि और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है (राजनेता सैनिक और पत्रकार आदि ) क्षत्रिय है--- त्रतीय बर्ग जो समाज की अर्थ व्यस्था और उपभोगीता के लिए जिम्मेदार है (व्यपारी ) उन्हें हम वैश कह सकते है----- ,,,, चतुर्थ वर्ग उन लोगो का है जो समाज के मेहनतकस लोग (सभी प्रकार के श्रमिक किशान इत्यादी )है जो समाज की जड़ का पर्याय है जिनके बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है------ उन्हें हम सूद्र कह सकते है ------ ,,, अब कौन व्यक्ति इस वर्ण व्यवस्था पर उंगली उठाये गा और कहेगा की ये गलत है-----,,,, फिर वर्णव्यवस्था की बुराई क्यूँ ,?,,, बुराई वहा से सुरु होती है -----जब ये वर्ण व्यवस्था कर्म के हिसाब से ना हो कर जन्म के हिसाब से हो जाती-----

(जैसे की आज कल है ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण होताहै -----क्षत्रिय का क्षत्रिय भले ही भले ही उनके अन्दर ब्राह्मणोचित या क्षत्रियोचित गुण ना हो )है बस यही से बुराई की जड़ सुरु होती है------ और वर्णव्यवस्था का विरोध भी ,,,, तो आवश्यकता है सही सोच विकशित करने की ------और यह समझने की वर्ण व्यवस्था जन्म परक नहीं कर्म परक है----- कुछ तथा कथित जाति वादी (जिनमे भगवान् मनु का विरोध करने वाले राजनेता है )इसका विरोध कर सकते है----- और धर्म ग्रंथो का गलत हवाला दे सकते है (की वर्ण व्यवस्था जन्म परक है )परन्तु यहाँ पर मै उन्हें उनकी जबान में उत्तर दूंगा और धर्म ग्रंथो के रहस्य खोलूँगा------ ,,,,

शुरु करते है भगवान् गणेश द्बारा लिखित पवित्र ग्रन्थ महाभारत से जिसमे जिसमे धर्म राज युधिस्ठर स्वयं मेरी बात का समर्थन(कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती है और कर्म के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ) करते है --------

वे कहते है ,,,,

श्रणु यक्ष कुतं तात् , स्वध्यायोन श्रतम |

कारणम् हि द्विजत्वे व्रतमेव संशयः ||

(महाभारत वन पर्व )

अर्थात :कोई केवल वेद पाठन या कुल में जन्म लेने से ब्राह्मण नहीं बनता बल्कि अपने कर्मो से ब्राह्मण बनता है

इतना ही नहीं हमारे धार्मिक ग्रन्थ भरे पड़े है उन उदाहरणों से जिनसे यह सिद्ध होता है की जाति जन्म से नहीं कर्म से होती है और योग्यता बर्धन के साथ जाती बदली भी जा सकती है ,, और ये भी हो सकता है की माता पिता दोनों ब्राहमण हो और पुत्र सूद्र हो जाए या फिर इसका उल्टा हो (अर्थात माता पिता दोनों सूद्र हो और पुत्र ब्राहमण या क्षत्रिय ये उसकी योग्यता पर निर्भर है कुछ उदहारण देखते है ,,,,

अत्री मुनि (ब्राहमण )की दस पत्निया भद्रा अभद्रा आदि जो की रजा भाद्र्श्वराज (जो की क्षत्रिय थे ) की कन्याये थी और उन कन्याओं की माँ अप्सरा (नर्तकी )थी ,, दतात्रेय दुर्वाषा अत्री मुनि के पुत्र थे जो की ब्राह्मण हुए ||
(
लिंग पुराण अध्याय ६३ )
अब आप कहेगे की जाती तो पिता से निर्धारित होती है अगर पिता ब्रह्मण है तो पुत्र तो स्वभाविक रूप से ब्रह्मण होगे ही ,,,नहीं नहीं ऐसा नहीं है वो अपनी योग्यता से ब्राह्मण हुए थे आगे देखे ,,,
-मातंग ऋषि जो की ब्रह्मण थे ,, एक ब्राह्मणी के गर्भ से चांडाल नाई के द्बारा उत्पन्न हुए थे ||
(
महाभारत अनुपर्व अध्याय २२ )
-ऋषभ देव राजा नाभि (जो कि क्षत्रिय ) के पुत्र थे इनसे सौ पुत्र हुय्र जिनमे से इक्यासी ब्राह्मण हुए
(
देवी भागवत स्कन्द )
-राजा नीव (क्षत्रिय )ने शुक्र (ब्राह्मण ) कि कन्या से विवाह किया इनके कुल में मुदगल ,अवनीर, व्रह्द्र्थ ,काम्पिल्य और संजय हुए मुदगल से ब्राह्मणों का मौदगल्य गोत्र चला
(
भागवत स्कंध अध्याय २१ )

इतना ही नहीं मै अन्य अनेक और उदहारण दे सकता हूँ जिनसे ये सिद्ध होता है कि जाति जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होती थी , ये उदहारण ये भी सिद्ध करते है कि विजातीय विवाह प्रचलित थे और मान्य थे एक और उदाहरण महा ऋषि काक्षिवान का
महाऋषि काक्षिवान (ब्राह्मण ) के पिता दीर्घतमा क्षत्रिय थे और ये उनके द्बारा एक शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न

भगवान् मनु जिन्हें कथित प्रगति वादी वर्णाश्रम व्यवस्था के लिए पानी पी पी कर कोसते है , ने मनु स्म्रति में स्पस्ट कहा है कि जाति कर्म से निर्धारित होती है जन्म से नहीं और क्रम के अनुसार जाति बदली भी जा सकती है ,,
भगवान् मनु कहते है ,,,
शुद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैती शूद्र्ताम |
क्षत्रिय यज्जन में वन्तु विधाद्वैश्याप्तथैव च//|

(मनु स्मरति अध्याय १० श्लोक ६५ )
अर्थात : शुद्र ब्राह्मणता को प्राप्त होता है , और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होता है इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश कुल में जन्म्लेने बालो को जानो |
इससे स्पस्ट है कि जाति जन्म से नहीं थी योग्य शूद्र ब्राह्मण हो सकता था और अयोग्य ब्राह्मण शूद्र ,, इतना ही नहीं भगवान् मनु ने कर्म पर बहुत जोर दिया है वे कहते है अपनी अपनी जाति बनाये रखने के लिए या जाति को उच्च बनाने के लिए विहित कर्मो का करना आवश्यक है इस श्लोक में --

भगवान् मनु कहते है--

योSनधीत्य द्विजो वेद मन्यन्त्र कुरुते श्रमम|
स जीवन्नेव शुद्र्त्वमाशु गच्छति सन्वया ||
(मनु स्म्रति अध्याय २१ श्लोक १६८ )
अर्थात : जो द्विज वेद को छोड़ कर अन्यंत्र टक्करे मारता है वह जीता हुआ सपरिवार शूद्र्त्व को प्राप्त होता है |
इतना ही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था बनाये रखना राज धर्म होता था और उनकी शुद्धता और स्पष्टता का भी आकलन होता था योगता में गिरने पर उच्च जाति छीन ली जाति थी , और योग्य होने पर जाति प्रदान भी कि जाती थी,,,,
न तिष्ठति तू यः पूर्व नोपास्ते यास्तु पश्चिमाम |
स शूद्रव्र्द्वहिस्काय्य्र : सर्वस्माद्रद्विज कर्मणा ||

(मनु स्मरति अध्याय २२ श्लोक १०३ )
अर्थात : जो मनुष्य प्रातः वा सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र है और उसे समस्त द्विज कर्मो से बाहर कर देना चाहिए


इतना ही नहीं उस समय के अनेक अन्य निति कारो ने भी इसी चीज कि व्याख्या अपने अपने निति शास्त्रों में कीअगर सभी का उदारहण लेने बैठ गए तो बात बहुत लम्बी खिच जाए गी वैसे पर्याप्त तथ्य तो हम दे ही चुके है जो तर्क शील व्यक्ति की जिज्ञासा शांत करने के लिए काफी है और कुतर्की को हजार तर्क भी अगर और दूँ तो ना काफी है फिर दोवैराग अन्य निति कारो की स्म्र्तिया (निति ग्रन्थ ,कानून की पुस्तके ) तो देख ही लूँ
देखिये कर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् पराशर क्या कहते है ----

अग्निकाययित्परिभ्रस्टा : सध्योपासन : वर्जिता |
वेदं चैवसधियान :सर्वे ते वृषला स्मर्ता||
(
पराशर स्म्रति अध्याय १२ श्लोक २९)
अर्थात :हवन वा संध्या से रहित वेदों को पढने वाला ब्राह्मण , ब्राह्मण नहीं शूद्र है|
बिलकुल यही बात शंख स्म्रति भी दोहराती है देखे ---
व्रत्या शूद्रसमास्तावद्विजेयास्ते विच्क्षणे |
याव द्वेदे जायन्ते द्विजा जेयास्त्वा परम |
(शंख स्म्रति अध्याय श्लोक )
अब मुझे लगता है मैंने काफी उदहारण दे दिए और ये काफी है है मुझे अपनी बात सिद्ध करने के लिए और भारतीय संस्क्रती कि अमूल्य निधि को कुरीति समझ कर उसे छोड़ रही आधुनिक पीढी के सामने उसके महत्त्व को स्पस्ट करने के लिए ,,,,,,
क्षमा प्रार्थना: प्रार्थना है कि व्याकरण कि गलतियों पर ध्यान दिया जाए (क्यूँ कि मै विज्ञान का विधार्थी हूँ औरहिंदी ज्यादा अच्छी नहीं है )और लेख के उद्देश्य को समझा जाए

20 comments:

  1. वाह प्रवीण जी - बहुत कुछ जुटाकर आपने आलेख को बेहतर बना दिया है। काफी मेहनत किया है आपने। बधाई। आपके लेख को पढ़ते पढ़ते अपने शुरूआती दिनों की रचना याद आयी, जिसके कुछ अंश प्रेषित कर रहा हूँ-

    चातुर्वण्यं मया श्रृष्टं गुण कर्म विभागशः।
    गीता का यह अमर वाक्य सदा सत्य है अक्षरशः।।

    ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र का कर्म सदा आधार।
    उचित यही है आज भी इस पर करें विचार।।

    कुल से कभी भी जाति का उचित नहीं निर्धारण।
    व्यास, बाल्मिकी, विश्वामित्र सभी कहाये ब्राह्मण।।

    मंत्री हुए आज के ब्राह्मण क्षत्री सीमा रक्षा करते।
    वैश्य हुए सब व्यापारी जन शूद्र वही जो नौकरी करते।।

    इत्यादि-----

    पुनश्च शुभकामना।
    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. वाह प्रवीण भाई...आज पहली बार आपके इस ब्लॉग पर पहुंचा...पूरा आलेख पढ़ कर ..सबसे पहली बात तो ये मन में आयी की ..यहाँ आपके कलम की धार ज्यादा तेज है...दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न...और मेहनत..स्पष्ट परिलक्षित हो रही है..अब बात इस वर्तमान पोस्ट की...मैं अभी तो सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ की ..जाती व्यवस्था पर बिलकुल एक अलग ही नज़रिया दिखा दिया आपना...अच्छा है ...जारी रखें...प्रभावित करती संग्रहणीय पोस्ट

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  3. आलेख पढकर चौंक गयी .. बस एक ही बात कह सकती हूं .. अभी तक आपको जितना समझा था .. उससे आपसे इतने गंभीर आलेख की उम्‍मीद तो कतई नहीं कि थी .. इसका अर्थ यही हुआ कि .. अभी तक आपको समझ ही नहीं सकी थी .. विश्‍वास है आगे भी आप मुझे चौंकाते रहेंगे .. मेहनत कितनी की आपने .. यह मायने ही नहीं रखता .. इतनी सार्थक मेहनत की .. वह मायने रखता है .. काश , सब लोग आपकी दृष्टि से ही ग्रंथों का अध्‍ययन कर पातें .. आपकी दृष्टि से ही हमारी प्राचीन सभ्‍यता , संस्‍कृति और परम्‍परा को समझ पाते !!

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  4. प्रवीण जी आपके द्वारा उठाया गया मुद्दा अगर देखा जाये तो बहुत पेचिदा है। हां मै आपके बात से जरुर सहमत हूं कि आदमी अपने कर्म से उचा बनता है न की अपने जाति या धर्म से। रही बात वर्णाश्रम व्यवस्था की तो ये बता पाना की ये कब से चला रहा है, जरा मुश्किल सा प्रतित हो होता है, बात फिर वहीं आकर रुकती है मानने और न मानने की आप और हम इस व्यवस्था को नही मानते वहीं बहुत से लोग ऐसे भी है जो इस कुरिती को मानते आयें है, और मानते रंहेगे। अगर देखा जाये तो ये हमारे समाज के लिए अभिशाप जैसा है, लेकिन हमारे समाज के ठेकेदारो द्वारा इसको सही ठहराया जाता है।। आपने इस लेख के माध्यम से एक सार्थक प्रयास किया है, इसके लिए आपको बधाई देना चाहुगां।

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  5. प्रवीण जी, आपका यह लेख किसी भी बुद्धिजीवी के मन की दृष्टि का कोण बदल सकता है. आपके दिए उदाहरणों से हमारे अतीत की सामाजिक व्यवस्था स्पष्ट होती है, जिसे जानकर किसी भी मानवतावादी भारतीय का सीना गौरव से भर जाना चाहिए. संक्षेप में यही कहूँगा कि हमें अपने गौरवमयी,शुद्ध,स्वर्णिम अतीत से सबक लेकर वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का पुनर्गठन करना चाहिए. परन्तु उसके लिए आप जैसे ब्रहामणों के पांडित्य का प्रकाश अति आवश्यक है.

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  6. the whole emphasis of Hindu philosophy is on 'Karm' ,but anti -indian forces are using caste-system to break India.

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  7. प्रवीन वैसे तो मै तुम्हरी हर रचना पर स्त्ब्ध हो जाती हूँ मगर इस आलेख ने तो मुझे निशब्द कर दिया है जिस तरह से तुम ने इस विषय को सश्क्त ढंग से उठाया है और उसको उदाहरण दे कर स्पश्ट किया है वो काबिले तारीफ तो है ही मगर बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है और नयी पीढी के लिये बहुत उप्योगी और शोध का विशय है अब तुम्हारा ये दायित्व भी बन जाता है कि इसमे पहले उठाये गये बाकी जवाब भी इसी तरह से दो। ताकि ये एक पूर्ण्रूप ले सके शायद ये एक क्रान्तिकारी प्रयास है कि हम भारतीय संस्कृति और रिशिओं मुनिओं दुआरा स्थापित इन परंपराओं को समझ सकें और ये वर्ण व्यवस्था मे भेद भाव दूर करने मे सहायक हो सके । तुम्हारी कर्मठता और अपनी ससंकृति मे निष्ठअ शलाघा योग्य है इस उमर मे इतना ग्यान तुम्हें जरूर कोई क्रान्तिकारी मिशन तक ले जायेगा बहुत बहुत बधाई और आशीर्वाद्

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  8. प्रवीन जी सशक्त लेखन के लिये पहले तो बधाई. देर से पढ पाया खेद है. कुछ बिन्दुओ पर कुछ मै भी कहने का दुस्साहस कर रहा हूँ आशा है अन्यथा नही लेंगे.
    “क्यूँ की परम्पराए अगर अपने मूल रूप में है तो उनके गलत होने के चांस नगण्य है---“
    बिलकुल ठीक पर यह भी तो सम्भव है कि परम्परा तो अपने मूल रूप मे ही हो पर समय काल के परिवर्तन, समाज के ढाचे मे परिवर्तन से और विशेषरूप से सोच मे परिवर्तन से उन परम्पराओ के समग्र प्रभाव मे परिवर्तन हो गया हो और कुछ स्थितियो मे नकारात्मक हो गया हो.
    आपने बिलकुल ठीक फर्माया है प्रारम्भिक वर्ण व्यवस्था समय की मांग रही होगी तभी इस व्यवस्था का गठन हुआ. पर इस वर्ण व्यवस्था के साथ भी उपरोक्त कारण आज के परिवेश मे प्रभावित करता हुआ सा नज़र आता है. जैसा कि आपने भी उल्लेख किया है.
    “(जैसे की आज कल है ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण होताहै -----क्षत्रिय का क्षत्रिय भले ही भले ही उनके अन्दर ब्राह्मणोचित या क्षत्रियोचित गुण ना हो )है बस यही से बुराई की जड़ सुरु होती है------ और वर्णव्यवस्था का विरोध भी ,,,, तो आवश्यकता है सही सोच विकशित करने की ------“
    गम्भीर और सामयिक रचना के लिये पुन: बधाई.

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  9. बहुत सही कहा आपने, और यह सिर्फ ब्रहाम्मान तक सीमित रहने वाली बात नहीं बल्कि सभी तरह की जाति व्यवस्था पर लागू होता है अगर कोई समझे तो !

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  10. बहुत अभ्यास पूर्ण लिखा है ...हम कई शब्दों के सही/या मूल ( जो शब्द कोष पे आधारित हैं), अर्थ भूल गए ..जो मायने प्रचालन मे आते रहे , उनके कारण दिलों मे दूरियाँ बढ़ती गयीं ..बड़ी मेहनत की आपने इस विषय पे...शुक्र गुज़ार हूँ..कई बातें नए सिरेसे पता चलीं...!

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  11. प्रावीण
    मै इदम राष्ट्राय पर दंगे वाली पोस्ट पर बार-बार पहुन्च जा रहा था उस पर मैने १४ को ही कमेन्ट कर दिया था ,फिर मुझे इस की याद आई ,आप का दिया लिन्क भी वहीं पहुन्चा देता था । खैर देर आयद दुरुस्त आयद ।
    इस लेख को पढ़ कर तबियत प्रसन्न हो गयी ! बधाई हो बड़ा सार्थक सारगर्भित एवं सर्वोपरि बहुत क्रान्तिकारी आलेख है, इसका लिखित रुप अपने पास अवश्य रख लेना ।

    निरुक्ति जिसके मध्यम से वेद शब्दों की व्युत्पत्ति बताई और शब्द का भावार्थ कहते हुये उसे परिभाषित किया जाता है ; में
    यास्क मुनि ब्राह्मण के बारे मे कहते है<> ’ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:’ अर्थात जो उस परम-ब्रह्म [परम-सत्य : ईश्वर] को जानता है वही “ब्राह्मण” है, अर्थात ब्राह्मण कहलाने क अधिकार रखता है ,सन्दर्भ तो याद नही है इसी कथन को कहीं पर किसी अन्य ने कहा है “ ब्रह्म रमणते [ या, रमणयते ]ब्राह्मणाः” ।
    वास्तव में ‘वेद’ वर्ण-व्यवस्था के बारे कहते हैं जो आचार-विचार और कर्म के आधार पर निर्धारित होते हैं ।
    हिन्दी ‘जाति’ शब्द संस्कृत शब्द `ज्ञाति' का हिन्दी या अपभ्रंश है जिसका अर्थ एक ही कुल:वंशावली के होता है , जिसका घालमेल “ निहित स्वार्थ ” वाले धर्म और समाज के तथाकथित ठेकेदार वेदोक्त वर्ण व्यवस्था से कर रहे हैं

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  12. प्रवीण जी ,
    कल टिप्प्णी मेहमानों के आने के कारण अधूरी ही पोस्ट कर दी थी ,क्योन्कि कई-कई अभी पोस्ट करते हैं में धोखा खा चुका हूं दुबारा आने में वक्त भी लगने वाला था; वैसे टिप्प्णी अपने आप में एक प्रकार से पूरी भी थी क्यों कि बात एक बिन्दु पर ही आकर समाप्त हो रही थी । लिजिये जो दो-चार लाईने शेष रह गई हैं.......

    यहां एक तथ्य और ध्यान में रखना जरुरी है कि कुल या वन्शावली वाले गोत्र समान्यताः महा-भारत काल से आरम्भ होते हैं ,जो भारत में यूनानी प्रभाव काल दौर में ज्यादा प्रभावी हो गया और ऋषि नाम कुल-गोत्र परम्परा का ह्रास हुआ जिन्हे सवर्ण कहा गया ब्राह्मण-क्षत्रियों आदि में ही अवशेष रही जिनमें भी ब्राह्मण वर्ग ही प्रमुख रहे ।

    यहां सामान्य जन के बीच फ़ैले एक भ्रम का निवारण आवश्यक है ,“ वैदिक वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम परम्परा ”
    सामान्यतः लोग इसे एक ही बात समझ लेते हैं , जब कि एक वैदिक-विधान है तो दूसरी समाजिक व्यवस्था ।
    मैं यहीं पर अपनी बात समाप्त करता हूं क्यों कि यह एक स्वतन्त्र आलेख का विषय है सामान्य तिप्प्णियों को इसके
    अनुसार विस्तार नही दिया जा सकता ।

    एक बार पुनः एक सारगर्भित , क्रन्तिकारी और सार्थक आलेख द्वारा ब्लोगिंग जगत को समृद्ध करते हुए ब्लोगिंग को एक सार्थक दिशा देने का प्रयत्न करना बधाई का हकदार और प्रशासनीय है |

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  13. विज्ञानियों की हिन्दी तो और अच्छी होनी चाहिए प्रवीन जी अगर इस फानी [नष्ट होने वाली]दुनिया में ईश्वर के बाद कुछ परफेक्ट है तो वो विज्ञान ही है .खैर...
    मैं कहता हूँ ,अगर विधाता ,नर को मुट्ठी में भर कर
    कहीं छींट दे, ब्रम्ह लोक से ही नीचे भू-मंडल पर
    तो भी विविध जातियों में ही ,मनुज यहाँ आ सकता है
    नीचे हैं क्यारियाँ बनी तो बीज कहाँ जा सकता है --दिनकर
    सकलन अच्छा है और सोच भी

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  14. सच कहा -- वही ब्राम्हण है जो विद्वान हो निरंतर ज्ञान बांटता हो और ज्ञान बटोरता हो और वही शूद्र है जिसके विचार निम्न हो दिल छोटा हो

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  15. प्रवीण जी ,

    तस्वीरें देख के ही मन इतना आहत हो गया था कि क्या कहूँ इस हैवानियत पर ...एक ही ईश्वर के बनाये बन्दों को जाति- भेद में किसने बांटा ...??

    आपने सही कहा परंपरा को नकारने से पहले उसका गहन अध्यन आवश्यक है -----और आपने इतनी कम उम्र में ये जो गहन अध्यन किया मैं तो नतमस्तक हो गई हूँ ....!!

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  16. परिवार का उदाहरण देकर जाति व्यवस्था को बड़े अच्छे ढंग से समझाया है... तसवीरें दिल दहलाने वाली हैं.. कर्म और जन्म को हम समझ लें तो धरती को बदलने और ईशवर को पाने का रास्ता साफ़ है...

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  17. तसवीरें दिल दहलाने वाली हैं.. कर्म और जन्म को हम समझ लें तो धरती को बदलने और ईशवर को पाने का रास्ता साफ़ है.अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

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  18. बिल्कुल सही बातें लिखी हैं आपने, बहुत जानकारी मिली,
    धन्यवाद, साधुवाद

    अपनी अपनी डगर

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