Tuesday, March 16, 2010

एक मुसलमान ऐसा भी (प्रवीण पथिक )


मन की इच्छाए जब अपनी सामर्थ से बाहर आसमान छूने का प्रयाश करती है तो , ऐसी उदंड इच्छाओ से पार पाना मुश्किल हो जाता है ,,, तब संयम ही एक मात्र लाठी होती है जिससे इन्हें सवांरा जा सकता है या मै कहूँ की नियंत्रित किया जा सकता है ,,, लेकिन एक चीज ये भी देखने लायक है की ये इच्छाये भी मानवीय गुण है दोष नहीं ,,,मगर इच्छाओ की उदंडता दोष युक्त पथ की ओर अग्रसित करती है ,,,, मै यहाँ पर इच्छाओ की इतनी व्याख्या इस लिए कर रहा हूँ की आगे के संस्मरण में मै जिस व्यक्ति का वर्णन करूँगा ,, उसके चरित्र के लिए इन इच्छाओ का बड़ा महत्त्व हो जाता है,,,, क्या संस्मरण मै संस्मरण नहीं लिखता लेकिन अगर भावनाओ की अनुभूति अगर संस्मरण है और उसे लिपि बद्ध करना अगर संस्मरण लेखन है तो मै संस्मरण ही लिख रहा हूँ ,,,,,हर व्यक्ति का जीवन अनन्त उतार चढाव भरा होता है ,,, अपने जीवन में विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों का मिलन और और उनका विछुड़ना आगमन और गमन कभी तो बिलकुल निर्थक हो सकता है और कभी कभी एक नयी दिशा देता है ,, और कभी कभी इसका उल्टा भी होता है अर्थात दिशाओं का रोधन भी करता है ,, नव मिलन व्यक्ति की व्रत्ति और इच्छाए ही निर्धारित करती है ,, परन्तु अच्छे व्यक्ति का मिलन ( इसे अगर मै सीधे ग्रामिक शब्दों में कहूँ तो महान व्यक्तियों का मिलन )दैवीय क्रपा का ही प्रतिफल है अब बात को ज्यादा न लम्बा खीचते हुए मै सीधे ही कहूँगा तथा तथ्यों का व्योरे बार वर्णन भी नहीं करूँगा इससे विषय की गम्भीरता ख़त्म हो जाती है और विषय भी लम्बा हो जाता है ,,,,
आज मुझे अकबर खान राना जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ इसे दैवीय नियति ही कहेगे या फिर मेरी भाग्य हीनता लगभग सात आठ महीने लम्बे गंभीर वैचारिक संबंधो के बाबजूद मिलने का सौभाग्य नहीं मिला ,, मै अपने आप को बहुत हीन और लज्जित मह्शूश करताहूँ ,,,मै सोचता हूँ की राष्ट्र वादिता का जो भारी ढोल मै पिछले आठ साल से मै अपने गले में डाले झूम रहा हूँ और उस पर अपनी ही थाप देकर खुद उसकी प्रति ध्वनी सुन कर मदहोश हो जाता हूँ ,,,, उस राष्ट्र वादिता के भीष्म पितामाह ,, हरियाणा के ये छोटे से गाव में उस राष्ट्र वादिता को जी रहे है ,,,,मै अपने आप को तब और धन्य पाता हूँ,, जब राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण उनका प्रेम और उनकी अनुरुक्ति शब्दों की जहग आशुं बन कर प्रस्फुटित होती है,,,,,, वो येसा महान व्यक्तित्व है जिनकी व्याख्या मै कर ही नहीं सकता उनके बारे में तो बस इतना ही कहूँगा ,,,, की समाज की पीड़ा को जो व्यक्ति अपनी पीड़ा समझता हो समाज की धड़कन जिसकी अपनी धड़कन से हो कर गुजरती हो ,,,,उस महान आत्मा से मिलन के उन क्षणो को मैंने ठीक उसी तरह सहेज लिया जिस तरह कभी भगवान् से मिलन के क्ष णो को जिस तरह शबरी ने,,, महात्मा गाँधी से मिलन के क्ष णो को मीरा (मार्गेट ) ने और मार्क्स से मिलन के क्ष णो को जिस तरह उनके परम हितकारी और परम भक्त एंगेल्स ने सभाला होगा,, इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है ,, इसे यूँ समझ सकते है दुनिया के सारे इतिहासों में वर्णित दीन से दीन और महान से महान व्यक्तियों के परस्पर मिलन का जो अनुपम सुख होगा वो मैंने अनुभव किया ,,, मै आज अकेले ही उन लोगो से लड़ने की हिम्मत रखता हूँ ,,जो ये कहते है की देश के सारे मुसलमान आतंक वादी है,,, मै इस एक मुसलमान का उदाहरण देकर उन मुसलमानों के पाप धोने का दंभ भर सकता हूँ जो आतंक वादी है ,,,,,और निरुत्तर कर सकता हूँ उन लोगो को जो कहते है की मुसलमान देश भक्त नहीं होते,,, मै हिन्दुओ मुसलमानों या फिर किसी अन्य धार्मिक माताबल्म्बी को ताल थोक कर कह सकता हूँ की आज मेरे पास एक आदर्श राष्ट्र भक्त है जो भारत का भावी कर्णा धार भी है,, मेरी इन बातो का मखौल भी उड़ाया जा सकता है ,, और अकबर खान राणा प्रति इसे मेरी अंध भक्ति का नाम भी दिया जा सकता है,,मगर येसा व्यक्ति जिसकी करनी और कथनी ने लेश मात्र भी अंतर न हो ,, वो जो कहता हो उसी में गर जीता हो तो उसे मै महात्मा या देव तुल्य न कहू तो फिर क्या कहूँ ,,,,जो व्यक्ति राणा अपने नाम के पीछे केवल इस लिए लगाए फिरता है ,, की भारत की अमिट संस्क्रति सभ्यता और पहिचान से उसका भी जुड़ाव उतना ही रहे जितना अन्य सभी रास्ट्र भक्तो का ,,,,,,सच में धन्य हो गया इस व्यक्ति की सच्चाई , सह्रदयता और राष्ट्र भक्ति को लेकर ,, यहाँ मै शायद कुछ भूल रहा हूँ जितना श्री अकबर खान राणा जी मुझे दिखे निश्चय उतनी ही या मै कहूँ उससे भी गहनतम श्रीमती अकबर खान राणा जी है ,,,,,क्यों की किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की बनावट के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है ,,,, फिर वो चाहे माँ के रूप में हो या फिर पत्नी के रूप में,,, मेरे अनुसार अकबर खान जी में जो दीखता है वो श्रीमती अकबर खान जी के संयम को कर्तव्यों की भट्टी में तपाये जाने का फल है ,,,,,,,,
अकबर खान राणा जी के महान व्यक्तित्व की बनाबट में श्रीमती अकबर खान जी को ठीक उसी तरह नहीं भुलाया जा सकता जिस तरह वीर शिवाजी की महानता को देख कर जीजाबाई की शिक्षअओ और उपदेशो की महत्ता को कम कर के आँका नहीं जा सकता ,,,
अगर येसा होता है तो ये ठीक वैसे ही होगा जैसे महात्मा गांधी को ऊपर उठाकर कस्तूरबा गाँधी के तप और सयम को कम तर आंकना ,,,,
अतः श्री मति अकबर खान जी के त्याग हिम्मत और सहभागिता को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता ,,,,,
यहाँ एक व्यक्ति जिससे मै और प्रभावित हुआ बो है अकबर खान जी के मित्र गुरुमीत जी जो अपनी इच्छाओ के झूले में झूल रहे है जिसका जिक्र मैंने प्रारंभ में किया था ,, उम्मीद है जोइच्छाओं की इति होते ही समग्रता प्राप्त करेगे यही अकबर खान जी का प्रयाश और मेरी आशा है ,,,,,,

Thursday, March 11, 2010

हाय हमें अब तोबक्श दो दाता (प्रवीण पथिक )


जनता लाचार वादे बेकार महगाई बढती जारही है सरकार सो रही है कुम्भकर्णी नीद,,, मुद्रा स्फीति की दर लगातार बढे जारही है और सरकार ग्रोथ रेट बढ़ने की बात करती है ,,, आम जन पिसता जा रहा है और सरकार आंकड़ो का खेल खेल रही है फिर क्यों न सरकार की जय बोले जय हो ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

तीन चार साल के अन्दर के अन्दर चीजो के दाम आसमान छूने लगे है ,, हर चीज पचास से सौ दो सौ प्रतिशत मूल्य ब्रद्धि कर चुकी है(केवल किशानो की उपज और मजदूरों की मजदूरी छोड़ कर) जनता पस्त हलाल होते बकरे सी मिमिया रही है ,, मुनाफाखोर जमा खोर चांदी काट रहे है .....फिर क्यूँ न सरकार की जय बोले ,,,, जय हो

नेता एशो आराम और मजे के साधन जुटाए जा रहे है किसान लागत के लिए कर्ज को न चुका पाने से आत्म हत्याए कर रहे है ,,,,मनमोहन जी ट्रिकल डाउन थ्योरी को पेट से सहेजे बैठे है ,,,
( एक अमेरिकेन अर्थशास्त्री की थ्योरी जिसके अनुसार अगर ऊपर का तबका पूंजी में बढेगा मतलब अमीर और अमीर बनेगा तो तो पूंजी का रिसाब नीचे भी होगा और गरीब तबके को भी फायदा पहुचेगा ),,, सरकार नकारा हो चुकी है आंकड़ो में छेड़ छाड़ कर गरीबी मिटाने का प्रयाश कर रहे आरक्षण की गोटी दिखा कर भूखो की भूख मिटाने का भरमाया प्रयाश किया जा रहा है ये प्रयाश ठीक वैसा ही जैसे भूखे कुत्ते को रोटी दिखा कर हम चाहे जहा ले जा सकते है ,,एक बार फिर जय हो ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

पर ऐसे क्या आईये इस आंकड़ो की सरकार से कुछ आंकड़ो से बात कर लेते है...
उदारीकरण का भूत हवा होते वादे


१८ साल पहले नरसिंह राव सरकार ने जब उदारीकरण निजी करण की शुरुआत की थी तो आज के प्रधान मंत्री तब वित्त मंत्री थे ,,, उन्होंने तब ट्रिकल डाउन थ्योरी की पिपहरी बजाते हुए दावा किया था की जब समाज के शिखरों पर सम्रद्धि आएगी तो वह रिस कर नीचे तक पहुचेगी ,,,तब से १८ बर्ष बीत चुके हुआ उल्टा गरीब और गरीब हो गया और आमिर और आमिर होते जा रहे है ,,,
कुछ तथ्यों में देखे ..................
१-केपजेमिनी ,और मेरिल लिंच ,, द्वारा तैयार एशिया प्रशांत सम्पदा रिपोर्ट के अनुसार विगत कुछ वर्षो के दौरान भारत करोडपतियो की संख्या में ब्रद्धि दर की द्र्स्टी से पूरी दुनिया में वियतनाम के बाद दूसरे स्थान पर है ,,, दिसंबर २००७ में भारत में १ लाख तेईस हजार करोडपति थे जो एक बर्ष पूर्व के मुकाबले २३ प्रतिशत अधिक थे
२-फोबर्स पत्रिका के अनुसार बर्ष २००६ में दुनिया के ९४६ अरबपतियो में ३६ भारतीय शामिल थे , २००५ दुनिया में ७६८ अरब पति थे यानी एक बर्ष में विश्व स्तर पर अरब पतियों की संख्या में २६ प्रतिशत की ब्रद्धि हुई जबकि भारतीय अरब पतियों की संख्या में ६४ प्रतिशत की
देश के दश सर्वोच्च ख़रब पति हर मिनट में दो करोड़ रूपए बनाते है अकेले मुकेश अम्बानी हर मिनट ४० लाख रूपए बनाते है
३-दुनिया के शीर्षस्थ ५ महाधनिको में २ भारतीय है
४-फोबर्स पत्रिका द्वारा तैयार दुनिया के अरब पतियों की सूचि में २००४ में ९ भारतीय शामिल थे जो २००७ में बढ़ कर ४० हो गए अगर इस मसले को वैश्विक स्तर पर देखे तो भारत से बहुत अमीर जपान में अरब पतियों की संख्या २००७ में महज २४ फ्रांस में १४ और इटली में १४ थी ,,,,
आश्चर्य तो तब होता है जब आर्थिक विकाश और तेजी से बढती गैर बराबरी के बाबजूद चीन में २००७ में केबल १७ अरब पति ही थे,,,
५- भारत के अरब पतियों की दौलत महज एक साल में १०६ अरब डालर से बढ़ कर १७० अरब डालर हो गयी


अब ये तो रही भारत में पूँजी ब्रधि जो सरकार की अमीरों और उद्धोग पतियों के साथ साठ गाँठ औरमेल जोल के कारण बढ़ी सारे मुनाफे के धंदे सरकारी सांसदों और सरकारी महको ने अपने मातहत उद्धोग पतियों को उपहार स्वरूप दे दिए अगर इसे खरी भाषा में कहे तो बेच दिए और बदले में मोटी रकम अपने स्विस और भारत में विभिन्न खातो में जमा की ,,,
"अर्थ शास्त्री अमित भादुड़ी के अनुसार अरब पतियों की दौलत में ६० प्रतिशत की बढोत्तरी इसलिए मुमकिन हुई क्यों की राज्य और केंद्र सरकारों ने खनन उद्धोगी करण और विशेष आर्थिक क्षेत्रो के लिए "सार्वजनिक उद्देश्य " के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीन निजी कार्पोरेशनो को सौप दी ,,,,,
ये तो रही ऊपर की बात अब जरा नीचे भी देख ले
१८ बर्षो के नब उदारिबाद के दौर के बाद इक्कीसवी सदी के भारत की खासियत ये है की यह अरब पतियों की दौलत के हिसाब से अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर है ,, लेकिन बेघरो कुपोषितो, भूखो अन पढो की तादात के लिहाज से नंबर एक है एश्वर्य - सम्रद्धि की चका चौंध भरी दुनिया का अन्धकार मय पहलू यह है की ( रास्ट्री नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ) १-देश की १८ करोड़ आबादी झुग्गियो में रहती है ,,,, और १८ करोड़ आबादी फुटपाथों पर सोती है,,,,

( निकम्मी सरकारे जिनमे वर्तमान सरकार का अधिकतम समय शासन रहा है आम आदमी को ये अदद छत भी मुहयिया नहीं करवा पायी जबकि नेताओं के बंगलो और हवेलियों की संख्या बढती जा रही है )
२-रास्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण भारत में प्रतिदिन उपभोग मात्र १९ रूपए और शहरी भारत में मात्र 30 रूपए है ,, गावोँ की दस प्रतिशत आबादी प्रति दिन ९ रूपए पर गुजारा करती है (आप खुद सोच सकते है इस पूंजी पर कोई कैसे गुजारा कर सकता है लाखो परिवारों को आधे पेट या भूखे ही सोना पड़ता है

( जबकि सत्ता रूढ़ नेताओ पर और उनके परिवारों पर औसत ३००० रूपए प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्चा आता है)


२-रास्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण भारत में प्रतिदिन उपभोग मात्र १९ रूपए और शहरी भारत में मात्र 30 रूपए है ,, गावोँ की दस प्रतिशत आबादी प्रति दिन ९ रूपए पर गुजारा करती है


(आप खुद सोच सकते है इस पूंजी पर कोई कैसे गुजारा कर सकता है लाखो परिवारों को आधे पेट या भूखे ही सोना पड़ता है ( जबकि सत्ता रूढ़ नेताओ पर और उनके परिवारों पर औसत ३००० रूपए प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्चा आता है)


३- नॅशनल कमीशन फार इण्टर प्राइजेज इन द अन आर्गेनाइज्ड सेक्टर की एक रिपोर्ट के अनुसार बर्ष २००४-०५ में लगभग ८४ करोड़ लोग ( यानी आबादी का ७७ प्रितिशत हिस्सा ) रोजाना २० रुपये से भी कम पर गुजारा करता है इनमे से २२ फीसदी लोग रोजाना ११.६० रुपये रोज़ की आमदनी ( यानी गरीबी रेखा से नीचे .) १९ फीसदी लोग रोजाना ११.६० रुपये से १५ रुपये की आमदनी पर और ३६ फीसदी लोग १५ रूपये से २० रुपये की बीच की आमदनी पर गुजारा करते है
अब बारी सरकार की जय हो बोलने की है,, ये निकम्मी सरकारे कितनी बेरहम और खून चूसक है जिन्हों ने ११.६० रूपये से कम आमदनी के आदमी को गरीब माना है अगर सच में देखा जाए तो १०० रुपये की आमदनी तक का आदमी गरीब है और उसे गरीबी रेखा से नीचे मानना चहिये यानी देखा जाए भारत की ९५ प्रतिशत आबादी गरीब

अब कुछ और बाते जिनकी चर्चा अगली पोस्ट में
१-आम चीजो का दाम कितना बढा अरे १०० दो सौ नहीं हजार हजार प्रतिशत तक
२-कुपोषण के मामलो में विश्व में हमारा स्थान
3- स्त्रियों की बदतर स्थिति में विश्व में हमारा स्थान
४-घटती औसत आयु के मामले में हमारा स्थान ,,
५- उत्पादन ब्रद्धि फिर भी प्रति व्यक्ति आधी होती भोजन उपलब्धता
जैसे और अनेक मुद्दों पर चर्चा अगली पोस्ट में

Thursday, December 24, 2009

रास्ट्र वादिता और प्रगति

हाजिर हूँ रास्ट्र वाद पर अपना चिंतन लेकर


जब कभी भी सामाजिक व्यवस्थाओ में परिवर्तन होता है ,--उनकी गति और अविरल प्रवाह में परिवर्तन होता है ,, तब नयी व्यवस्थाये जन्मती है और धीरे धीरे पुरानी व्यवस्थाये विलुप्त होने लगती है--- ,व्यवस्थाओ के इस परिवर्तन का समाज और रास्ट्र पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है , यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकता है ----, यदि प्रभाव सकारात्मक है तो थोड़ी हील हुज्जत के बाद ये व्यवस्था समाज द्वारा स्वीक्रत हो जाती है,---- और पुरानी व्यवस्था की जगह ले लेती है , परन्तु यदि यही प्रभाव नकारात्मक होता है,, तो इसके खिलाफ रास्ट्र वाद की दुहाई देता हुआ एक प्रबुद्ध वर्ग खड़ा हो जाता है ,,और व्यवस्था परिवर्तन का विरोध करता है ,, आम जन उस समय कर्तव्य विमूढ़ होता है ,,वह ना तो नयी व्यवस्था को पूर्णता अस्वीकार करता है--- और न ही स्वीकार ही , प्रबुद्ध वर्ग द्वारा असंगत व्यवस्था परिवर्तन के विरोध को और अल्प प्रबुद्ध वर्ग(यहाँ प्रबुद्ध वर्ग और अल्प प्रबुद्ध वर्ग के मेरे मानक के अनुसार चिंतन शील समाज का वह वर्ग जो प्रगति का तो विरोधी नहीं है- परन्तु किसी भी व्यवस्था परिवर्तन को पूर्ण चिंतन और मनन के साथ ही स्वीकार करता है तथा भविष्य की पीढियों पर उस व्यवस्था परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा इसके प्रति जाग्रत होकर ही व्यवस्था परिवर्तन को स्वीक्रति देता है -प्रबुद्ध वर्ग में आता है --समाज का वह वर्ग जो समाज और रास्ट्र के हितो के प्रति तो चिंतित होता है ,,परन्तु उसका यह चिंतन सामायिक और वर्तमान परस्थितियों को लेकर ही होता है समाज और रास्ट्र पर व्यवस्था परिवर्तन के द्वारा पड़ने वाले दीर्घ गामी प्रभाव को लेकर ये वर्ग मौन होता है अल्प प्रबुद्ध वर्ग में आता है ) द्वारा व्यवस्था परिवर्तन के समर्थन को आंख बंद कर के ही देखता है ,--- यदि पुरानी व्यवस्था असंगत और शोषक है तो यह वर्ग उसके शोषण को तो महसूश करता है और उसके परिवर्तन की उत्कंठा भी रखता है परन्तु यह बिना चिंगारी का ईधन है ,जो आग को जलाए तो रख सकता है परन्तु जिसमे आग उत्पन करने की क्षमता नहीं है यही वो वर्ग है जो दोनों वर्गों ( प्रबुद्ध और अल्प प्रबुद्द वर्ग ) द्वारा आसानी से अपने साथ जोड़ा जा सकता है ,,, इस वर्ग द्वारा राष्ट्रीयता रास्ट्र वाद और रास्ट्र भक्ति की कोई स्वनिर्धारित व्याख्या नहीं होती . यह विभिन्न वर्गों द्वारा निर्धारित रास्ट्र वाद की व्याख्याओ के अनुसार अपने आप को रास्ट्रवादी सिद्ध करने का प्रयाश करता रहता है,,, अब यहाँ जो मुख्य बात पर दिखती है वह यह है की समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रास्ट्र वाद के स्पस्ट और तर्क पूर्ण अर्थ से ही अनभिग्य है तिस पर विभिन्न राजनैतिक और सामाजिकदलों ने
अपने फायदे के हिसाब से रास्ट्र वाद की मनगढंत व्यखाये करके कोढ़ में खाज का काम किया है ,, जिससे बहुत बड़ा और दीर्घ गामी नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ा ,और आम जन की रूचि अस्मिता और आत्म गौरव से जुड़े इन शब्दों से हट गयी ,, इन शब्दों को इतना गूढ़ कर दिया गया की ये शब्द भारी साहित्य की तरह नीरश और भारी लगने लगे जिनका प्रयोग लिखने पढने और बोलने तक ही रह गया और आम जन का जुड़ाव इन शव्दों से ख़त्म होने लगा ,, जब की सीधे शव्दों में देखा जाए तो अपनी अस्मिता और पहिचान को बचाए रखने के लिए नकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन का विरोध ही प्रखर रास्ट्र वाद है ,,और यही सच्ची रास्ट्र भक्ति है . क्यों की रास्ट्र वादिता है तो रास्ट्र है और रास्ट्र है तो राष्ट्रीयता और यही रास्ट्रीयता हमारी पहिचान है ,, तो इन अर्थो में रास्ट्र वाद कोई गूढ़ विषय न होकर वयक्तिक विषय है जो सीधे सीधे व्यक्ति विशेष से जुड़ा है,, रास्ट्र वाद की व्याख्या में दो सबसे महत्पूर्ण अवयव है रास्ट्र और जन ,, रास्ट्र संस्क्रति , अध्यात्म ,धर्म दर्शन तथा भूखंड का वह भाग है जिसमे जन निवास करते है ,,, जन किसी भी रास्ट्र में रहने वाले मनुष्यों का वह समूह जो उस रास्ट्र की सांस्क्रतिक ,अध्यात्मिक, धार्मिक और इतिहासिक पहिचान की ऱक्षI करते हुए और उससे गौरव प्राप्त करते हुए निरंतर उस रास्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए प्रयाश रत रहता है जन कहलाता है ,, यहाँ ये ध्यान देने योग्य बात है की किसी भी रास्ट्र की भौगोलिक सीमाए परिवर्तनीय हो सकती है परन्तु किसी रास्ट्र का आस्तित्व तभी तक है जब तक उसकी सांस्क्रतिक और अध्यात्मिक पहिचान जिन्दा है जिसके ख़त्म होते ही रास्ट्र विलुप्त हो जाता है , और वह केवल भूखंड का एक टुकड़ा मात्र रह जाता है . यही सांस्क्रतिक धार्मिक और अध्यात्मिक पहिचान जन में राष्ट्रीयता का बोध कराती है, परन्तु एक जो चीज सबसे महत्व पूर्ण है वह ये है की रास्ट्र और जन एक दुसरे के पूरक तो है, परन्तु रास्ट्र सर्वोच्च है , जन के पतन से रास्ट्र का शनै शनै पतन तो होता है परन्तु रास्ट्र के पतन से जन का सर्व विनाश हो जाता है , अतः रास्ट्र की सर्वोच्चता और अस्तित्व को बनाये रखना प्रत्येक जन का कर्तव्य है क्यों की रास्ट्र है तो जन , रास्ट्र प्रेम की यही भावना रास्ट्र वाद है जिसमे व्यक्तिगत हितो को तिरोहित करके संघ समाज समूह के विस्तर्त वर्ग में अपना हित देखा जाता है,,यही त्याग की भावना रास्ट्रवादी होने का गौरव प्रदान करती है ,, अगर इसे सीधे शब्दों में देखे तो अपनी पुरातन उर्ध गामी व्यवस्था संस्क्रति और गौरव को बचाए रख कर प्रगति के मार्ग पर बढ़ना ही सच्चा रास्ट्र वाद है-- , यही राष्ट्रीयता की भी सच्ची पहिचान है ,,जो आज कल विभिन्न राजनैतिक दलों संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद की व्याख्या से सर्वथा अलग है , अगर हम विभिन्न राजनैतिक दलों और संगठनों द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद का विश्लेषण करे तो तो हम यही पाते है की उनके द्वारा प्रचारित रास्ट्र वाद अधूरा रास्ट्र वाद है, और वे पूर्ण रास्ट्र वादिता का समर्थन नहीं करते ,,क्यों की कोई भी वाद एक के द्वारा स्वीकार्य तथा दूसरे के द्वारा अस्वीकार्य और दूसरे के द्वारा स्वीकार्य और पहले के द्वारा अस्वीकार्य हो कर प्रखर रास्ट्र वाद की व्याख्या नहीं कर सकता ,,,,,,
इसे हम धर्म से भी नहीं जोड़ सकते ,क्यूँ की हम किसी विशेष धर्म को रास्ट्र वादी और दूसरे को रास्ट्र विरोधी तब तक नहीं मान सकते जब तक उस धर्म के मानने वाले रास्ट्र वाद की परिक्षI में पास या फेल नहीं होते , अब हम फिर उसी विषय पर आ जाते है की आखिर रास्ट्र वाद है क्या ?क्या किसी एक वर्ग विशेष द्वारा प्रतिपादित मानको को पूरा करना रास्ट्र वाद है या फिर दूसरे वर्ग द्वारा निर्धारित मानको को पूरा करना सच्चा रास्ट्र वाद है ,,,इसे हम आधुनिक परिपेक्ष में सबसे विवादस्पद विषय वन्दे मातरम को ले कर देख सकते है , एक वर्ग विशेष इसके गायन को प्रखर रास्ट्र वाद और इसके विरोध को रास्ट्र द्रोह मानता है , वही दूसरा वर्ग इसके गायन की बाध्यता को धार्मिक स्वतन्त्रता का हननमानता है,, अब इन दोनों में किसे रास्ट्र वादी कहा जाए और किसे नहीं ,,यहअपर मै अपने विचार स्पस्ट करना चाहूँगा " की किसी व्यक्ति के अन्दर रास्ट्र वाद को डर ,भय ,प्रलोभन और बाध्यता के द्वारा नहीं पैदा किया जा सकता है , यह वो भावना है जो व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठ कर आत्म गौरव और सामाजिक त्याग से शुरू होती है ,,जो केवल और केवल जाग्रति के द्वारा ही संभव है , मै नहीं मानता की जो वन्देमातरम नहीं गाते वो रास्ट्र वादी नहीं और न मै ये मानता हूँ की जो वन्देमातरम गाते है वो प्रखर रास्ट्र वादी है ,,रास्ट्र वाद एक भावनात्मक जुड़ाव है जो संस्क्रति के प्रति महसूस होने वाले गौरव के रक्षIर्थ स्वत उत्पन्न होता है ,,ये बाध्यता नहीं है परन्तु आस्तित्व का संघर्ष है ,,अतः रास्ट्र वादिता के विराट स्वरूप को किसी गीत संगीत या दलगत राजनीति के मानको में ढालना उचित नहीं है ,,,रास्ट्र वाद आस्तित्व की पहिचान है ,,,जो जाति समाज वर्ग, धर्म और संघ से ऊपर उठी हुई त्याग की एक भावना है जो पूर्णता पुष्ट होने पर बलिदान में परिवर्तित हो जाती है ,,रास्ट्र वाद की उस श्रेष्ठता में पहुचने पर व्यक्तिगत आबश्यकताये व्यक्तिगत पहिचान , और व्यक्ति विषेयक सारे नियम रास्ट्र के हित में तिरोहित हो जाते है यही प्रखर रास्ट्र वाद की अति है ,, जो धर्म जाति और वर्ग संघर्ष से ऊपर है ,,रास्ट्र वादिता में जो एक चीज मुख्य रूप से दिखाई देती है वो हैआत्म त्याग की निस्वार्थ भावना ,, क्यूँ की इसके न रहते हुए रास्ट्र वाद की बात नहीं की जा सकती ,, जहा रास्ट्र जन के सम्मान पहिचान और गौरव के लिए उत्तरदायी होता है,, और जहाँ जन रास्ट्र के इतिहास प्रगति और उत्थान से गौरव पाते है,,वही रास्ट्र की सांस्क्रतिक विरासत को बनाये रखना और रास्ट्र को निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ाये रखना प्रत्येक जन का परम कर्तव्य होता है ,,,,,
इसे हम इस प्रकार समझ सकते है ,,की जन का एक वर्ग जहा रास्ट्र के लिए प्रगति और उत्थान कर उसके गौरव को निरंतर चर्मौत्कर्ष पर ले जाता है ,,वही दूसरा वर्ग रास्ट्र की संस्क्रति विरासत और इतिहास को सभाल कर आने वाले पीढ़ी को गौरवान्वित करने की व्यवस्था करता है,,और आने बाली पीढ़ी अपने गौरवान्वित इतिहास सेआत्म संबल प्राप्त कर के रास्ट्र के उत्थान में नित नए आयाम स्थापित करती है ,,,अतः रास्ट्र वादिता उत्थान की सीढ़ी है ,,,और चर्मोत्कर्स पर पहुचने का तरीका है

बिना रास्ट्र के जन अस्तित्व हीन है अतः आस्तिव को बचाए रख ने के लिए रास्ट्र वादिता नितांत आवश्यक है ,,,परन्तु रास्ट्र वादिता प्रलोभन नहीं है वह स्वीक्रति है, निर्भरता नहीं है उन्नति है ,,,, और प्रखर रास्ट्र वादिता से नित नयी उन्नति की जा सकती है और उन्नति के लिए नए आयाम स्थापित किये जा सकते है ,,,अतः रास्ट्र वादिता और प्रगति की प्रचलित वो धारणा की रास्ट्र वादिता में संस्क्रति और इतिहास के संरक्षण के कारण रास्ट्र वादिता प्रगति के मार्ग में बाधक है और प्रगति से रास्ट्र वादिता खो जाती है,,नितांत भ्रामक है,,,अतः रास्ट्र वादिताऔर प्रगति दोनों एक दूसरे के पूरक है ,,,प्रगति के नए आयामों के संयोजन के बिना तथा पुराने गौरव को बचाए बिना रास्ट्र को बचाना मुश्किल है ,,,अतः प्रखर रास्ट्र वादिता के लिए प्रगति वादिता आवश्यक है ,,परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा की प्रगति वादिता के मानक रास्ट्र के गौरव मय इतिहास और संस्क्रति को ध्यान में रख कर ही तय करने होगे वही सच्ची रास्ट्र भक्ति होगी और वही सच्ची रास्ट्र वादिता होगी अंत में दो शब्दों के साथ मै अपनी लेखनी को विराम देता हूँ ,,,
"जिस व्यक्ति के अन्दर अपनी संस्क्रति सभ्यता और इतिहास को सजोने की क्षमताऔर प्रगति के नित नए आयाम स्थापित करने की तत्परता नहीं है वो न तो रास्ट्र वादी है और न ही प्रगति वादी है वो निरे पशु के सिवा कुछ भी नहीं है " ,

Friday, October 9, 2009

नारी उत्थान का नंगा सच



नारी
उत्थान और समाज में उनकी स्थितिक बराबरी का मै पछ धर हूँ पर परम्पराओं व्यवस्थाओं के अवमूल्यन और उन्मूलन की शर्त पर नहीं ,,, आज समाज में स्त्रियों की दशा सोचनीय है ,(यहाँ पर मै वैश्विक समाज की बात कर रहा हूँ ) उनका शोषण होता है शत प्रतिशत सही है ,, उनकी क्षमता, योग्यता , और कार्यशीलता का मूल्यांकन पक्षपात पूर्ण है,,,,लेकिन इसके लिए दोषी कौन है ये विचारणीय प्रश्न है,,, सम्पूर्ण पुरुष समाज की सहभागिता और पुरातन परम्पराओं , व्यवस्थाओं को अगर एक तरफ धकेल भी दिया जाए (जैसे की पश्चिमी समाज में काफी हद तक है ) फिर भी स्त्रियों उनकी दशा में प्रतिशत का सुधार होने बाला नही ,, समाज को बाँट कर और एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप लगा कर किसी भी समस्या के हल पर नहीं पंहुचा जा सकता,,, पश्चिमी समाज में जहा स्त्री स्वंतत्र है, आत्म निर्भर है (यहाँ आत्म निर्भरता से मतलब सेक्सुअल आत्म निर्भरता से भी लिया जाए ) और पुरुषों से किसी मामले में कम तर नहीं है (जैसा की कथित स्त्रीवादी कहते है ) स्त्रियों की दशा क्या है मै दू लायनो में स्पस्ट करना चाहूंगा ,,,,
कुछ तथ्य देखिये

--हर में से एक अमेरिकन स्त्री अपनी जिन्दगी में बलात्कार की शिकार होती है,,,
--१७. मिलियन अमेरिकन औरते पूर्ण या आंशिक बलात्कार की शिकार है ,,,
-१५ % बलात्कार की शिकार १२ साल से कम उम्र की लड़किया है ,,,
--लगभग % अमेरिकन पुरुषों ने हर ३३ में ने अपनी जिन्दगी में कभी कभी पूर्ण या आंशिक बलात्कार किया है ...
एक चाइल्ड प्रोटेक्शन संस्था की १९९५ की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में १२६००० बच्चे बलात्कार के शिकार है जिनमे से 75 % लड़किया है और लगभग ३० % शिकार बच्चे से की उम्र के बीच के है
ये आकडे कम नहीं है अगर हम इन की अन्य विपत्तियों से तुलना करते है तो स्तिथि की भयानकता स्पस्ट हो जाती है ,,, ,,
जरा देखे
बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या डिप्रेशन के शिकार रोगियों से तिगुनी ,,शराब पीकर गाली देने वालो से १३ गुनी ,, नशीला पदार्थ ले कर गाली देने वालो से २६ गुनी और आत्म हत्या करने वालो से चौगुनी है ,,,
ये तो बहुत कम आकडे है ,,,,
अगर इसी प्रगति के लिए हमारे कथित प्रगति वादी (जिन्हें पश्चिमी की हवा लगी है ) हाय तोबा मचा रहे है तो येसी प्रगति को हम तो बर्दास्त नहीं कर सकते,,,,
अब बात शुरू करते है नारी शास्क्तिकरण और नारी उत्थान की (जिसकी हवा बाँध कर कुछ चंद प्रगतिवादी अपनी पद प्रतिस्ठा और अर्थ की रोटियां सेक रहे है और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को दिग्भर्मित किये है ),,,, आखिर नारी वादी आन्दोलन है क्या? मै तो आज तक नहीं समझ पाया .,,,, क्या नारी वादी आन्दोलन वास्तव में स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए की जा रही कोई क्रान्ति है ?,, या फिर पश्चिम से लिया गया एक खोखला दर्शन ,, जिससे स्त्री उत्थान तो संभव नहीं हां अवनति के द्वार अवस्य खुलते है ,,, अगर पश्चिम के इस दर्शन से कुछ हो सकता तो पश्चिमी समाज में स्त्रियो की जो दशा आज है शायद वो नहीं होती ,,,,,
हत्या ----दिसम्बर २००५ की रिपोर्ट के आधार अनुसार अकेले अमेरिका में ११८१ एकल औरतो की हत्या हुई जिसका औसत लगभग तीन औरते प्रति दिन का पड़ता है यहाँ गौर करने वाली बात ये है की ये हत्याए पति या रिश्ते दार के द्बारा नहीं की गयी बल्कि ये हत्याए महिलाओं के अन्तरंग साथियो (भारतीय प्रगतिवादी महिलाओं के अनुसार अन्तरंग सम्बन्ध बनाना महिलायों की आत्म निर्भरता और स्स्वतंत्रता से जुड़ा सवाल है और इसके लिए उन्हें स्वेच्छा होनी चाहिए) के द्बारा की गयी ,,,,
अब अंत रंग साथियो ने येसा क्यूँ किया कारण आप सोचे ,,,,नहीं नहीं नहीं नंगा पन (कथित प्रगतिवाद ) इसके लिए जिम्मेदार नहीं है ,,,
घरेलू हिंसा-----National Center for Injury Prevention and Control, के अनुसार अमेरिका में . मिलियन औरते प्रति वर्ष घेरलू हिंसा और अनेच्छिक सम्भोग का शिकार होती है ,,, और इनमे से कम से कम २० % हो अस्पताल जाना पड़ता है ...
कारण ---- पुरुष विरोधी मानसिकता और पारिवारिक व्यवस्थाओं में अविस्वाश और निज का अहम् (जो की कथित प्रगतिवाद की श्रेणी में आता है ) तो कतई नहीं होना चाहिए ,,,
सम्भोगिक हिंसा -----National Crime Victimization Survey, के अनुसार 232,960 औरते अकेले अमेरिका में २००६ के अन्दर बलात्कार या सम्भोगिक हिसा का शिकार हुई , अगर दैनिक स्तर देखा जाए तो ६०० औरते प्रति दिन आता है,,,इसमें छेड़छाड़ और गाली देने जैसे कृत्य को सम्मिलित नहीं किया गया है ,,, वे आकडे इसमें सम्मिलित नहीं है जो प्रताडित औरतो की निजी सोच ( क्यूँ की कुछ औरते येसा सोचती है की मामला इतना गंभीर नहीं है या अपराधी का कुछ नहीं हो सकता)और पुलिस नकारापन और सबूतों अनुपलब्धता के के कारण दर्ज नहीं हो सके ,,,
कारण --- इन निकम्मे प्रगतिवादियों और नारी वादियों द्बारा खड़े किये गए पुरुष विरोधी बबंडर रूपी भूत की परिणिति से उत्पन्न स्त्री पुरुष बिरोध और वैमन्यस्यता ( स्त्रियों को पुरुषों के खिलाफ खूब भरा जाना और और पुरुषों का स्त्र्यो की सत्ता के प्रति एक भय का अनुभव )तो बिलकुल नहीं ये आकडे बहुत है मै कम दे रहा हूँ और उद्देश्य बस इतना ही है की पुरुष विरोध के कथित पूर्वाग्रह को छोडिये ( जिसे मै पश्चिम की दें मानता हूँ )
इसमें किसी तरह का कोई नारी विरोध नहीं है और ना ही मै ये चाह्ता हूँ की उनकी स्तिथि में सुधार ना हो ,, बल्कि मै तो आम उन स्त्रियों को समझाना चाहता हूँ (जो इन कथित प्रगतिवादी महिलाओं और पुरुषों के द्बारा उनके निजी लाभ के कारण उकसाई जा रही है) की इनके प्रगतिवाद में कोई दम नहीं अगर वास्तव में आप को समाज में अपनी स्तिथि को उच्चता पर स्थापित करना है तो आप को उस भारतीय परम्परा की ओर बापस आना होगा ( जो कहता है स्त्रिया पुरुषों से अधिक उच्च है ) है ,,,
अब कथित प्रगतिवादियों के लिए छोटा सन्देश आप को अपनी प्रस्थ भूमि पर फिर विचार करने की आवश्यकता है और देखना है की जिस प्रगतिवाद की दुहाई आप दे रही है और जिन्हें आप

ने
मानक के रूप में स्थापित कर रक्खा है ,, क्या प्रगति वाद से उनकी वास्तव में कोई भी प्रगति हुई इतने लम्बे चले पश्चमी प्रगतिवादी आन्दोलन से क्या हासिल हुआ केवल विच्च का नाम जिस पर पश्चिमी औरते गर्व करती है ,,
m tough, I’m ambitious, and I know exactly what I want. If that makes me a bitch, okay. - Madonna Ciccone

अब येसा नहीं है की मै सभी नारी उत्थान में लगी महिलाओं की बुराई कर रहा हूँ मै तो ये फटकार केवल उनही चंद महिलावादियो को लगा रहा हूँ जो महिलाओं को उनकी स्तिथि से दिग्भ्रमित कर रही है और निजी स्वार्थ बस पुरुष विरोधी मानसिकता का प्रसार और पश्चिमी नारीवादी दर्शन(जो की अब फ्लॉप हो गया है ) का प्रचार कर रही है ,,,
ये मेरा ही मानना नहीं है बल्कि सच्ची नारी वादी महिलाए( यहाँ पर मेरा सच्ची नारी वादी महिलाओं से मतलब उन प्रबुद्ध महिलाओं से है जो पश्चिमी ब्नारिवादी दर्शन को भारतीय महिलाओं के लिए अभिशाप मानती है और सतत भारतीय मानको के आधार पर नारी उठान में लगी हुई है )
भी यही सोचती है उनमे से कुछ का उदहारण मै यहाँ पर दूंगा ,,,

मीडिया से ताल्लुक रखने वाली संध्या जैन कहती हैआज जो कानून बन रहे हैं वो विदेशी कानूनों की अंधी नकल भर हैं। उनमें विवेक का नितांत अभाव है। उन्होंने कहा कि अगर हमारे बेटे-बेटियां लिव इन रिलेशनशिप के तहत रहेंगे तो क्या हम खुश रहेंगे। क्या उनके इस फैसले से हमारी आत्मा को दुख नहीं होगा। अगर दुख होगा तो हमें ऐसे कानून का विरोध करना चाहिए और नहीं तो फिर तो कोई बात ही नहीं।"

गांधी विद्या संस्थान की निदेशक कुसुमलता केडिया जी के अनुसार भारतीय स्त्री किसी ने बिगाड़ी तो वो थे दो तामसिक प्रवाह- इस्लाम और ईसाइयत का भारत में आगमन। केवल भारत में ही नहीं ये दोनों शक्तियां जहां भी गईं वहां की संस्कृति की इन्होंने जमकर तोड़-फोड़ की। ईसाई विचारधारा के अनुसार स्त्री ईंख के समान है जिसे चाहें तो चबाएं या रस निकाल उसे पीकर फेंक दें। दूसरी ओर इस्लाम स्त्री को पूर्णत ढंक देने की वकालत करता है लेकिन वह यह नहीं सोचता कि इससे स्त्री का सांस लेना दूभर जाएगा।

ईसाई धर्म ने स्त्रियों पर जमकर अत्याचार किया।

जो स्त्री अधिक बोलती थी उसे मर्द रस्सी में बांधकर नदी में बार-बार डूबोते थे। यही उसकी सजा थी। लेकिन हमारे देश में इन दोनों के आगमन से पूर्व स्त्रियों की हमेशा सम्मानजनक स्थिति रही। विघटन तो इनके संसर्ग से हुआ। भारत के संदर्भ में नारी मुक्ति यही है कि भारतीय स्त्री फिर उसी पुरातन स्त्री का स्मरण कर अपने उस रूप को प्राप्त करे। कि पश्चिम की स्त्रियों का नकल करे।

समाज सेविका निर्मला शर्मा के अनुसार " भारत के गांवों में रहने वाली स्त्री तो मुक्त होने की इच्छा व्यक्त नहीं करती। एक मजदूरन भी ऐसी सोच नहीं रखती। मुक्ति वो स्त्रियां चाहती हैं जो कम कपड़ों में टेलीविजन के विज्ञापनों में नजर आती हैं ताकि वो कपड़ों का बोझ और हल्का कर सकें। नारी मुक्ति के बारे में वो औरतें सोचती हैं जिनकी जुबान पर हमेशा रहता हैये दिल मांगे मोर


निष्कर्ष यही है की नारी उत्थान और बराबरी आबश्यक है पर उसके मानक भारतीय हो
तथ्य और आकडे साभार.....

-Bureau of Justice Statistics,

2Deptartment of Justice,

3Centers for Disease Control and Prevention (CDC),

4National Coalition Against Domestic Violence (NCADV),

5Bureau of Justice Statistics (table 2, page 15),

6US Census Bureau (page 12),


7National Institute of Justice (pages 6-7),


8Family Violence Prevention Fund,



9University of North Carolina,

10National Coalition of Anti-Violence Programs (NCAVP),

11http://www.bhartiyapaksha.com/?p=1634